यूँ तो शंका किसिम किसिम की होती है..लेकिन अभी शंका के मुख्यतः दो प्रकार हैं..एक लघु शंका और दूसरा दीर्घ शंका..दीर्घ शंका ऐसी शंका है जिसका समाधान होते ही सम्पूर्ण लघु,मोट,पातर,छोट,चाकर,किस्म की समस्या का अपने आप समाधान हो जाता है...इसलिए दीर्घ शंका का अपना महात्म्य ,और दीर्घशंकालय की महिमा अपरम्पार है....अगर आप मेरी तरह आरएसएस के स्कूली उत्पाद नहीं हैं,तो दीर्घ शंकालय को शौचालय कहकर काम चला सकतें हैं..जिस पर आगे हम टार्च लेकर परकास डालने जा रहे हैं।
हाँ तो मितरों...कायदे से शौचालय का नाम सोचालय होना चाहिए..यदि आप आवश्यकता से अधिक बुद्धिजीवी हैं तो इस सोचालय को चिंतनालय का नाम देकर हिंदी शब्दकोश के साथ आसानी से छेड़ छाड़ कर सकतें हैं... आपको बता दें कि शौचालय का चिंतन से बहुत गहिरात्मक नाता है..क्या कारण है कि शौचालय में जाते ही एक आम भारतीय की आत्मा में अरस्तु,सुकरात के साथ रफ़ी ,किशोर हनी सिंग एक साथ प्रवेश कर नागिन डांस करने लगतें हैं.?.इस टॉपिक पर व्यापक शोध होना अभी बाकी रह गया है।
शंका के साथ शंकालय के भी नाना प्रकार हैं..लेकिन इस नितांत निजी स्थान पर परकास डालना उचित नहीं। हम कुछ सार्वजनिक स्थानों पर टार्च जलाते हैं।
जैसे कभी भारतीय रेलवे में शौचालय रूपी शंकालय केवल दिव्य निपटान और चिंतन की जगह ही नहीं अपितु अपनी साहित्यिक और चित्रकला प्रतिभा को प्रदर्शित करने का एक उत्तम स्थान भी होता था...
मने पिंकिया के पेयार में पगला कर घर का चावल बेच शीशमहल सनीमा हाल में 'बेवफा सनम' को तिहत्तर बार देख चूका मंटुआ.. जब बलिया से रसड़ा की गाड़ी पकड़ता तो सबसे पहले मूसा का गुल खाने के लिए शौचालय का रुख करता था...और दिव्य निपटान के परम आनंद से आनंदित होकर जब उसे पिंकी की याद सताती,तो वो अपने ऊपर वाले पाकेट से लिखो फेखो वाली कलम निकालता ,और अल्ताफ राजा को गुनगुनाते हुए,
अपनी जाने मन दिल रुबा की बेवफाई को शिद्दत से याद करता...फिर एक आम के आकार का दिल बनाकर .उसे धनुष के आकार के तीर से,उस पिंकिया के बेदर्दी से दिल को बेध देता... फिर अपने दिल पर चार किलो पत्थर रखकर लिखता..."आई लव यू बेवफा पिंकी..तुम्हारा प्यार में हमेशा से पागल.. "मन्टू."
आह..ये लिखकर उसे कितन सुख मिलता इसे बताने के लिए मेरा शब्दकोश शब्दहीन है...इतना समझिये कि वो सुख के मारे आँख बन्द कर लेता था..और पांच मिनट बाद जब आँख खोलता तो देखता की उसके पिंकिया के दिल के बगल में किसी महान चित्रकार ने एक कालजयी चित्र बनाकार बायोलॉजी के साइन्टिस्टों और वात्स्यायन से लेकर मस्तराम के सामने गम्भीर चुनौती पैदा कर दिया है....
उस चुनौती के ठीक दाहिने साइड किसी करिमना ने पेयार में फ्रस्टेसियाकर किसी फरजाना खातून का फोन नम्बर लिखके ये एहसास करा दिया है कि भारत का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय बहुत मजबूती से काम करता है।
इन सभी शायरी,कविता, चित्र कला के ठीक ऊपर हर प्रकार के नाकाम, स्वप्नदोष,शीघ्रपतन के रोग के महान वैद्य और वशीकरण इंद्रजाल के विशेषज्ञ हकीम एम लुकमान का विज्ञापन मुस्कराता..
इन सब कविता पेंटिंग्स और हकीम एम लुकमान को एक साथ देखने के बाद ये यकीन हो जाता है कि अधिकतर भारतीय बुद्धिजीवी,लेखक कलाकार,कवि वैचारिक शीघ्रपतन के शिकार हैं....
मितरों...जमाना बदल गया है..आज इन सभी शंकालय की दीवारों की जगह फेसबुक ट्विटर और what's app की दीवालों ने ले लिया है..जिस पर अभी भी कई कई मंटुआ करिमना अपना फ्रस्ट्रेशन निकाल रहें हैं।
कई हकीम एम लुकमान गुप्त रोग का इलाज कर रहें हैं। इसलिए ये कला अब खतरे में है...
लेकिन मितरों...इन शंकालय की दीवारो पर उकेरी गयीं ये कृतियाँ हमारी धरोहर हैं...यूनेस्को भले अपनी विश्व धरोहर की सूची स्थान न दे...लेकिन हमे अपनी इस महान शंकालीय कला परम्परा पर गर्व है...दुनिया देखकर पगला सकती है कि एक भारतीय निपटते समय भी कला ,साहित्य और दर्शन के चिंतन में मगन रहता है...वो भारत विश्व गुरु ऐसे ही नहीं हो गया था.."कुछ बात है की हस्ती मिटती नही हमारी"....हड़प्पा मोहनजोदड़ों की दिवाले गवाह हैं कि हमारा सदियों से कला और साहित्य पर एकाधिकार रहा है....
हमारी रेलवे के दरो-दीवाल पर हुई उत्तम पेंटिंग को यदी पिकासो देख लेते तो पेंटिंग करना छोड़ आठवी शादी रचाकर सन्यास ले लेते...
उस सद्भावना एक्सप्रेस के एस 7 में यदि न्यूटन जाते तो शंकालय की दीवार देखकऱ 'ला आफ मोशन' का चौथा नियम ये बताते की.."हर भारतीय का मोशन उसके इमोशन से जुड़ा हुआ होता है।"
उस चार बजे वाली पसेंजर के चौथी बोगी के निपटान केंद्र में लिखी कालजयी शेर को यदी ग़ालिब और फैज़ पढ़ लिए होते तो वो शायरी नहीं बल्कि किसी फारचून की दूकान पर अरहर की दाल बेच रहे होते....
मितरों...शोध हो या न हो लेकिन इतना तो पता है कि हम भारतीय जन्मजात कवि,संगीतकार और चित्रकार पैदा होते हैं...वो तो कमबख्त मैकाले की शिक्षा पद्धति से निकली डिग्रीयों का दोष है जो किसी कवि फलाना को बीटेक्स के बाद इंजीनीयर बना देती है...और चिलाना भगत को एमबीए के बाद लेखक बना देती है।
Monday, 18 January 2016
शंका समाधान और चिंतन....
Tuesday, 27 October 2015
बबुनी बीड़ी पियत जात रहली डोली में.....
बबुनी बीड़ी पियत जात रहली डोली में
आग लगवली चोली में ना................
हमारे भोजपुरिया क्षेत्र में नाच का कभी जबरदस्त क्रेज था...तब आर्केस्ट्रा की फ़ूहड़ता का प्रभाव ठीक से नहीं हुआ था..मैं भी पैदा नहीं हुआ था.. लेकिन मनोज तिवारी पटरी भाठा लेकर स्कूल जाते थे.निरहू और खेसारी झाड़ा फिरने के बाद पानी के लिए गड़ही का रुख करते थे ..
मल्लब कि मनोरंजन के नाम पर वही दूरदर्शन और आकाशवाणी..टीवी रेडियो भी इने गिने लोगों के पास.....अतवार के दिन किसी रामसेवक तिवारी के छत पर लगा, पचीस फुटिया एंटीना को कोई तीन फुट का सिंकूआ जोर से हिलाता तब जाकर रंगोली में चार गाने सुनने को मिलते..
कई बार चैनल सेट करते करते लेट हो जाता । कार्यक्रम ही समाप्त....आज रामायण में हनुमान जी ने लंका में जाकर का किया होगा इसकी चिंता में लोग खाना पीना छोड़ देतें।..
"मने जा रे जमाना..का कहें....."
वो दुर्दिन हालात थे...गाँव जवार के रँगबाज और नचदेखवा लौंडे बेचारे तरस जाते....
लगन के दिन में इक आस कि डिबरी टिमटिमाती.... खेदन राय की लड़की के बियाह में पक्का बंड़सरी का नाच आएगा।
पनरह दिन पहले गाँव जवार में शोर...मजनू छाप लौंडे दाढ़ी बाल रंग पोतकर ठीक...सौ पचास का खुल्ला करवाकर ऐसे तैयार होते...मानो इमरान हाशमी के सगे साढ़ू भाई साहब तैयार होकर कहीं निकल रहें हैं।
तो साहेब...दस बारह चौकी लगाकर नाच किसी परम नचदेखवा राई साहेब के खेत में शुरू हो जाती...स्टेज के पीछे एक परदानुमा घर बना दिया जाता,जहाँ कलाकार अपना वस्त्र बदल सके...उस दरवाजे पर डंडा लेकर गाँव के सबसे चरित्रवान लौंडे की ड्यूटी लगाई जाती...उसकी मुस्तैदी अगर बीएसऍफ़ वाले देख लें तो शरमाकर पानी पानी हो जाएँ..नाच शुरू...पहले आधा घण्टा बैंजो वाला लहरा बजाता....सुनकर गाँव के पुरुब टोला का मन्टूआ दौड़ता......"चल रे शुरू हो गइल"
दाहिने ओर बाप, बांये बेटा और पीछे बाबा एक्के संगे तीन पीढ़ी एक दूसरे से छिपकर नाच देखती थी ..जमाना था वो।।
."आरा हिले बलिया हिले छपरा हिलेला की तहरी लचके जब."..इस गाने पर ऐसा चौकी तोड़ डांस होता कि तीनों पीढ़ी एक साथ चिल्लाती...."अरे जिया करेजा हिला दिहलू....हई पाँच बीघा लिख दी का तहरा नावे हो.?."
फिर एक से बढ़कर एक ड्रामा होता.. कहते हैं गाँव के वो अनपढ़ कलाकार जब राजा हरिश्चंद्र नाटक खेलते तो रोने वाले के आँसू सूख जाते थे।।एनएसडी वाले भी एक बार उनका अभिनय देखकर सोचेंगे।
उस नाच में एक जोकर आता..निम्न वर्ग से ताल्लुक रखने वाले उस अनपढ़ जोकर के ह्यूमर के आगे कॉमेडी नाइट वाले कपिल शर्मा भी पानी भरने लगेंगे।।
उसी जोकर का इ गाना आज बरबस याद आ गया है....
"बबुनी बीड़ी पियत जात रहली डोली में
आग लगवली चोली में ना...
आप उस जोकर के मुंह से सुनकर खूब हंसेंगे लेकिन बीस मिनट बाद वो कहेगा...रुका... का बुझाइल?
इहाँ बबुनी मने चिंकी पिंकी नही हुआ.बबुनी मने आदमी जवन मर गया..डोली मने बेवान पर सजकर जा रहा है...जिसको फूल माला धूप अगरबत्ती से सजाया गया है.... आग लगवली चोली...मने इस नश्वर शरीर में किसी ने मुखाग्नि दे दिया है......अरे....आपके मुंह से 'अद्भुत' निकलेगा।
मैं सोचकर परेशान सा हो जाता हूँ..आज मनोरंजन कहाँ से कहाँ आ गया है..क्रान्ति बहुत कुछ देती है तो बहुत कुछ छीन भी लेती है।.पहले मनोरंजन के विशेष चैनल थे..आजकल तो न्यूज चैनल भी इतना स्वस्थ मनोरंजन करतें हैं कि आप मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाएंगे।
दिल्ली में बैठा कोई असली आम आदमी या लखनऊ वाला कोई समाजवाद का असली वारिस भी आपको हंसा हंसाकर लोट पोट कर सकता है...बिहार वाले प्योर सेक्युलर का भाषण सुनकर भी आप जी भरके हंस सकतें हैं.....मने अब चारो ओर जोकर हैं...
मनोरंजन अब अश्लील हो गया है.....श्लील की चिंता में दिन रात दुःखी.... वो वातानुकूलित कमरे में वैचारिक जोकरई करने वाले बौद्धिक जोकरों ने भी मनोरंजन को इतना सस्ता बना दिया हैं कि... अब रोमांच समाप्त हो गया है... उनको पढ़कर सुनकर चेहरे पर सिर्फ झूठी और बनावटी हंसी आती है।
इस किस्म के विषैले मनोरंजन ने हमारे चित्त का रंजन नहीं भँजन किया है।।।
असली और नकली जोकर कौन है पता लगाना अब मुश्किल है......
जानकारी ही बचाव है मितरों..जानना जरूरी है कि आपकी हंसी कहीं झूठी तो नहीं?.....
शुभ दिन।।
Thursday, 20 August 2015
अल्लाह वालों से अल्लाह बचाये
"जबसे राधा श्याम के नैन हुये हैं चार
श्याम बनें हैं राधिका और राधा बन गई श्याम"
भगवान भोले नाथ की स्तुति तब और ज्यादा सुंदर लगती है जब गुजरात के उस्मान मीर साब से "नमामि शमीशां....सुनकर राम कथा के मर्मज्ञ पूज्य सन्त मुरारी बापू रोने लगते हैं।
यहीं नहीं..बनारस में आरती के समय शाम को गंगा और सुंदर लगती है जब जयपुर में पैदा हुए उस्ताद अहमद हुसैन मुहम्मद हुसैन एक स्वर में गाते हैं.... "जय सरस्वती वर दे महारानी...."
या 8 अप्रैल 2015 को पाकिस्तान से पधारे ग़ज़ल के पर्याय गुलाम अली साब गोस्वामी तुलसी दास जी के हाथों स्थापित बाबा संकटमोचन के दरबार में अकबर इलाहाबादी की कालजयी ग़ज़ल गाते हैं
"बुत हमको कहे काफ़िर अल्लाह की मर्जी है"
तब सुनने वालों में रोमांच की लहर दौड़ने लगती है.....
अगले दिन उसी दरबार में सब खामोश हो जातें हैं जब दिल्ली से अपने पिता और पुत्र के साथ पधारे तबला वादक उस्ताद अकरम खान साहब अपना तबला वादन रोककर बाबा के सामने हाथ जोड़ लेते है की "बाबा की आरती हो जाए तब शुरू करता हूँ..."
कहीं कार्तिक में पंचगंगा घाट पर उस्ताद अमजद अली खान सरोद से निकली "रघुपति राघव राजा राम. " की धुन जब गंगा से टकराती है तो गंगा की लहरें और मचलनें लगती हैं...
जरा पीछे चलें तो हम 15 अगस्त 1947 को लालकिले से उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाइ की धुन में ही आजादी की पहली सांस लेते हैं...
और जरा हम भारतीय संगीत का इतिहास उठाकर देखें तो वो नाम ही ज्यादा दिखेंगे जिनके अंत में खान और हुसैन लगा है....वो चाहें सेनिया घराने के प्रथम सितार वादक तानसेन के पुत्र रहीमसेन रहे हों या मैहर घराने के उस्ताद अलाउद्दीन खान साहब....
या इमदादखानी घराने के उस्ताद विलायत खान साहब हों..
तबला के छह घरानों दिल्ली,पंजाब,बनारस, लखनऊ,अजराड़ा,फरुखाबाद में बनारस को छोड़कर सबके संस्थापक मुस्लिम कलाकार रहें हैं......बनारस घराना भी लखनऊ के उस्ताद मोदु खान साहब की देन है जब उन्होंने इसके संस्थापक पण्डित राम सहाय जी को पुत्र मानकर तबला सिखाया तब लखनऊ के मुल्ला जी लोग उस्ताद से बगावत कर दिए की आप एक पण्डित के पुत्र को गंडा बांधकर नहीं सीखा सकते लेकिन धन्य हैं वो उस्ताद।
ख्याल गायन के घरानों की चर्चा करेंगे तो ग्वालियर घराना के संस्थापक नत्थन पीर बख्श और मोहम्मद खान साहब थे...
आगरा घराना जिसने भारतीय संगीत जगत को अनमोल हिरे दिये हैं उसकी शुरुवात ही उस्ताद सुजान खान साहब से हुई थी....
दिल्ली घराना जो तान लेने की विचित्र पद्धतियों वे कारण प्रसिद्ध है उसके भी संस्थापक उस्ताद तानरस खान रहें हैं.....
भारत रत्न पण्डित भीमसेन जोशी के किराना घराने के संस्थापक भले वाजिद अली रहे हो पर इसकी लोकप्रियता में चार चाँद लगाने का गौरव उस्ताद अब्दुल करिम खान साहब को प्राप्त है...
उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साब के पटियाला घराना जाएँ या किशोरी अमोनकर जी के जयपुर घराना सब जगह मुस्लिम कलाकारों ने अपना अतुलनीय योगदान दिया है।
अपने अस्तित्व की लड़ाई में विजयी हो रही ध्रुपद गायन शैली के डागुरबानी में डागर बन्धुओं की सातवीं पीढ़ी भी आज माँ शारदे की सेवा कर रही है।
यहां मजहब के ठीकेदारों का जोर नहीं चला...वरना हिन्दू कलाकार सिर्फ मन्दिर में गाते और मुस्लिम कलाकार मजहबी जलसों में....
ये महज थोड़े उदाहरण हैं लेकिन सोचने पर अजीब लगता है और गर्व मिश्रित हर्ष की अनुभूति होती है कि शुक्र है कलाकारों ने अभी अपना मजहब घोषित नहीं किया....
सेक्युलरिज्म क्या है कोई मुलायम नितीश से नहीं कलाकारों से सिख सकता है....
जिन्होंने आज तक संगीत को ही अपना धर्म समझा है।
आज आइएस और बोकोहराम का वस चले तो उस्ताद नुशरत फतेह अली खान को जान से मार दे और अहमद हुसैन मुहम्मद हुसैन का घर जला दे या गुलाम अली साब की हत्या कर दे।
या मुल्ला जी लोगों का वस चले तो उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब की मजार पर "हिंदुओं का प्रवेश वर्जित लिख दे..."
लेकिन वन्दनीय हैं ये संगीतकार जिन्होंने इस घोर संकट के समय में भी समाज को एक सूत्र में बाँधने का काम किया है...जिन्होंने अपने देश और संस्कृति और विरासत को पूरी दुनिया से रूबरू कराया है...और बता दिया है की सिर्फ संगीत में ही वो ताकत है जो सबको जोड़ सकती है..
उनका देश और माटी से प्रेम देश का नमक खाकर विदेसी गुणगान करने वालों पर करारा तमाचा है...
1982 में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब से अमेरिका वालों ने पूछा था की आप यहीं रह जाते तो अच्छा होता...उस्ताद ने कहा की "मेरी काशी मेरी गंगा...वो बालाजी मन्दिर और दसास्वमेध घाट की सीढियाँ ला दो तो हम यहीं रह जाएँगे..." अमेरिकन खामोश हो गए थे।
आज उसी उस्ताद की पुण्यतिथि पर ऐसे सभी कलाकारों का वन्दन है जिन्होंने मुल्ला जी लोगों की परवाह किये बिना संगीत से देश और माँ भारती की सेवा करते हुए पूरी दुनिया में अपनी सांगीतिक विरासत का डंका बजाया है...
और धर्म के ठीकेदारों को उस्ताद नुशरत फतेह अली खान साब के शब्दों में बता दिया है..
और जाहिर में शौक-ए-इबादत
बस हमें शेख जी आप जैसे
अल्लाह वालों से अल्लाह बचाये।।"
Saturday, 31 May 2014
तराना : मातम का संगीत
संगीत के ग्रंथों में परस्पर विरोधाभास नें आज संगीत के छात्रों के सम्मुख बड़ा ही भ्रमात्मक स्थिति उत्पन्न कर दिया है.ग्रंथों में इतने मतभेद हैं की समझ में नहीं आता की सच किसे माना जाए.संगीत के छात्रों में शास्त्र के प्रति अरुचि होने की प्रमुख वजह एक ये भी है.जो भी थोड़ा बहुत रूचि लेतें हैं ,वो इस मतभेद और विरोधाभास के आगे हाथ खड़ा कर अपना सारा ध्यान रियाज पर केन्द्रित कर देतें हैं. गुरुमुखी विद्या और प्रारम्भ में शास्त्रों के प्रति उदासीनता होने के कारण उत्पन्न इस मतभेत से संगीत की विभिन्न विधाएं आज भी प्रभावित हैं .
एक छोटा उदहारण लें ,ख्याल गायन की सबसे मजबूत कड़ी 'तराना' है ,जो साधरणतया मध्य और द्रुत लय में गाया जाता है. जिसमें 'नोम ,तोम ,ओडनी ,तादि,तनना, आदी शब्द प्रयोग किये जाते हैं।कुछ लोग इसकी उत्पत्ति कर्नाटक संगीत के तिल्लाना से मानतें हैं.तो कुछ का मानना है की तानसेन ने अपनी पुत्री के नाम पर इसकी रचना की.संगीत के सबसे मूर्धन्य विद्वानों में से एक ठाकुर जयदेव सिंह की मानें तो इसके अविष्कारक अमीर खुसरो हैं. अब स्वाभाविक समस्या है की ...सच किसे मानें ?
हमारा भी दिमाग चकराया ,फिर इन तमाम विषयों पर कई लोगों को पढ़ा, उन्हें नोटिस किया ,लगा की आज औपचारिक शोध के दौर में कुछ लोग बेहतर कार्य कर रहें हैं और नित नये खोज और जानकारियाँ एकत्र कर संगीत के भंडार को समृद्ध कर रहें हैं. उन्हीं में से एक नाम है ,डा हरी निवास द्विवेदी जी का जिनकी किताब 'तानसेन जीवनी कृतित्व एवं व्यक्तित्व' ने मुझे प्रभावित किया और पढने के बाद कई अनछुए और अनसुलझे पहलू उजागर हुए..तानसेन के बारे में कई भ्रम दूर हुए तो कई जगह बेवजह महिमामंडन और भ्रांतियां दूर हुईं ..इसी किताब में वर्णित एक मार्मिक घटना ने तराना की उत्पति के सम्बन्ध में फैले मतभेद को कुछ हद तक जरुर कम किया है और व्यक्तिगत रूप से मुझे ये सत्य के निकट मालूम पड़ता है . अब जो भी हो
ये बात 1580 के आस पास की है ,सम्राट अकबर का सम्राज्य विस्तार जारी था.अपने पराक्रम से सम्राट ने अनेक राज्य जीते .
कहतें हैं 1587 में जब गुजरात विजय अभियान की शुरुवात हुई .उस अभियान में तानसेन भी अकबर के साथ थे
एक दिन शाही सेना अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे पड़ाव डाले हुई थी.तब बादशाह की संगीत प्रेम से प्रभावित एक स्थानीय संगीतकार नें बैजू की दो पुत्रियों के अद्भुत गायन और कला निपुणता की खबर पहुँचाई .ये सुनकर अकबर से रहा न गया उसने बुलावा भेजा और गायन के लिए आमंत्रित किया .बैजू की मृत्यु के बाद उत्पन्न विषाद और विपन्नता की स्थिति से गुजर रहीं उनकी दो पुत्रीयों ने भारी मन से आमंत्रण स्वीकर किया...कहतें हैं उस अद्भुत गायन को सुनकर अकबर क्या तानसेन भी रोने लगे थे..भारत वर्ष के संगीतकारों के बीच ये खबर पहुंच गई ,सब जानने के लिए उत्साहित की आखिर वो कौन है ,जिसने तानसेन को रुला दिया . कहतें हैं अकबर बड़ा प्रभावित हुआ और तानसेन को आदेश दिया की इनको फतेहपुर सीकरी के दरबार में लाया जाय तानसेन को ज्ञात हुआ की ये राजा मानसिंह तोमर संगीतशाला के वरिष्ठ आचार्य बैजू की पुत्रियाँ हैं जिनका नाम बैजू ने बड़े प्रेम से 'तोम' और 'ताना' रखा था .तानसेन न चाहते हुए भी शाही फरमान को मानने के लिए विवश थे.
उन्होंने दोनों के सम्मुख बादशाह के प्रस्ताव को रखा .इस प्रस्ताव को भारी विपत्ति समझ बैजू की दोनों पुत्रियों ने तानसेन से अकबर को ये खबर भिजवाया की ,वो दो दिन बाद आ जायेंगी।
ठीक दो दिन बाद बादशाह द्वारा सुसज्जीत पालकियां भेजी गयी...फतेह पुर सीकरी आकर पर्दा उठाया गया तो दोनों बहनों के शव प्राप्त हुए...इसके बात तो कहतें हैं की बादशाह को इतना दुःख हुआ जितना जीवन में कभी न हुआ था...उसने पश्चाताप करने के लीये अनेक जियारतें और तीर्थयात्राएँ की .इस हृदयविदारक घटना के बाद तानसेन को सामान्य होने में वक्त लगा था .इसी घटना से व्याकुल होकर तोम और ताना की याद में 'तराना' गायन प्रारम्भ किया ।
आज भी कभी कभी मैं ख्याल सुनतें वक्त तराना के समय असहज हो जाता हूँ ....ये सच में मातम का संगीत है ?क्या कई बार ऐसा लगा है...
Tuesday, 25 March 2014
मुहम्मद खलील के गीत
आकाशवाणी से गीत आने का समय बच्चे बच्चे को याद था। जिनके पास रेडियो नही था वो दुसरे के यहाँ सुनने जाया करते थे।
उसी वक्त आकाशवाणी गायक मुहम्मद खलील साहब के गीत आते थे तो लोग रेडियो घेर के बैठ जाते थे.....लोग उनके गीत उठते बैठते सोते जागते खेतो में काम करते गुनगुनाते थे।
अब जब हमने मनोरंजन के छेत्र में बेहिसाब प्रगति कर ली है । मनोरंजन के पैमाने बदल गये हर दस कदम पर आपको कैसेट कलाकार मील जायेंगे । अश्लीलता फूहड़ता हावी है ।भोजपुरी संगीत के हालात बड़े दयनीय हैं ....
ऐसे में धरोहर को सम्भालने की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। खलील साहब के गीत भोजपुरी के धरोहर हैं ।हमे इस भयावह सांस्कृतिक अकाल में उन्हें बचाए रखना है ।बहुत ज्यादा जानकारिया नही मिल पाती उनके बारे में फिर भी जिज्ञासा वस कई लोगों से चर्चा करने के बाद पता चला की.....खलील साहब ने कबीर के निर्गुण से लेके और कई लोकगीतों को गाकर लोकसंगीत को खूब समृद्ध किया उन्होंने पंडित भोला नाथ गहमरी जी का लिखे गीत भी गाये जो खूब लोकप्रिय हुए।........"कवनी खोतवा में लूकइलू आहि रे बालम चिरई "जैसे गीतों के लोग दीवाने थे।
इस गीत के साथ कई गीतों को बहुत बाद में मदन राय ने गाया। जिन्होंने खलील साहब को सूना है वो बताते हैं की उन्होंने ने जो गाया है वो अद्भुत है । आज भी खलील साहब की दुर्लभ आवाज की रिकार्डिंग आकाशवाणी के पास मौजूद है.....पर निराशा होती है की उसे न कभी प्रसारित किया जाता है न ही उसे सार्वजनिक किया जाता है।
उनका गाया और गहमरी जी का लिखा ये पति पत्नी का करुण सम्वाद । पत्नी मृत्यू शैया पर पड़ी हुई.......अपने पति से कहती है ....ये गीत शरीर की नश्वरता का सहज बोध कराता है।
हिले ना कवनो अलंगीया हो राम
सुंदर बनइहा डसानवा
ता उपर दुलहिन बन सोइब
उपरा से तनिहा चदरिया हो राम
अइसन पलंगीया...........
नकिया में सोने के नथुनिया
अब कइसे भार सही हई देहियाँ
मती दिहा मोटकी कफनिया हो राम
अईसन पलंगिया.......
जर जाई चाँद सी टिकुलिया
खाड़ बलम सब देखत रहबा
चली नाही एकहू अकिलिया हो राम
अइसन पलंगिया........
केकरा के कहबा दुलहिनिया
कवन पता तोहके बतलाइब
अजबे ओह देस के चलनिया हो राम
अइसन पलंगिया......
खूब करिहा रूप के बखानवा
सुंदर चीता सजा के मोर बलमू
फूंकी दिहा सुघर बदनियाँ हो राम
अइसन पलंगिया.........
भोजपुरी का नया सिनेमा- इन पांच शार्ट फिल्मों को नहीं देखा तो क्या देखा ?
भिखारी ठाकुर की भोजपुरी साफ्ट पोर्न का हब कैसे बनी ?
Thursday, 20 March 2014
खुद से खुद की बात
कई दिन बाद आके कमरा खोलता हूँ। ओह....होली में गाँव चले जाने के कारण नाराज, मकान मालिक के पंचवर्षीय पुत्र ने अखबारों के पन्ने काट काट के दीवाल पे चिपका दियें हैं ।ये देख के उसकी मासूमियत पे घंटो हँसने का मन करता है। दरवाजा खोलता हूँ अपलक कमरे की सारी चीजों को निहारता हूँ ....मानो सब रूठ गयें हो की "यूँ छोडकर क्यों चले गये"??
सब कुछ बिखरा बिखरा सा जस का तस वहीं का वहीं .....एक ठहराव..... मानो बिरजू महाराज आमद की तिहाई पे रुक गयें हो........
दिल कहता है ये ठहराव कितना सुंदर है अतुल बाबू ......
वहीं किताब के पन्ने फडफड़ा रहें हैं.....जहाँ से पढना छोड़ गाँव चला गया था।
चित्रलेखा श्वेतांक से कहती है.."तुम अभी नही समझ सके श्वेतांक.... पिपासा तृप्त होने की चीज नही है । आग को पानी की नही घृत की आवश्यकता है जिससे वह और भडके । जीवन एक अविकल पिपासा है उसे तृप्त करना जीवन का अंत कर देना है"
ओफ़्फ़......ये चित्रलेखा भी न......
ओशो टाइम्स में... बुद्ध पर ओशो के प्रवचन का अंश.... की एक रात एक गाँव में बुद्ध ठहरतें हैं साथ में उनका शिष्य आनंद भी है। एक व्यक्ति आता है और बुद्ध पर थूक के चला जाता है । आनन्द आश्चर्य से तथागत की ओर देखता है.... बुद्ध मुस्करा के कहतें हैं "भाषा बड़ी कमजोर है आनंद "। दुसरे दिन आता है और चरणों में गिर के रोने लगता है..." "देखो आनंद कहा था न भाषा बड़ी कमजोर है ये कुछ कहना चाहता है कल भी कुछ कहना चाहता था."....
क्या बात कही बुद्ध ने ...."सच में यार अतुल बाबू ये भाषा बड़ी कमजोर है"
दूसरी किताब का वही पन्ना....
रेणू की कहानी लाल पान की बेगम में बलरामपुर की नाच देखने के लीये सज धज के बैठी वो स्त्री .....अपनी बेटी से कहती है की आने दो तेरे बाबू को तो बतातीं हूँ। आज मुनिया के भाई ने पहली बार पेंट पहना है.....मुझे मुनिया के बाबू पे बड़ी गुस्सा आता है यार वो जल्दी क्यों नही आता.....और उस मासूम से लड़के पे तरस जिसने आज पहली बार पेंट पहना है.....
तबले जी गुस्से में टेढ़े हो गयें हैं।
वही हारमोनियम में रखे भूपाली के तान... गिटार के तारो में अटके वहि काड्र्स के नोटेशन।
म्यूजिक सिस्टम चालू करता हूँ तो कुमार गंधर्व जी वहीं से गातें हैं....शून्य शिखर पर अनहद बाजे जी....
मन दौड़ता है ये सब देख के
जी करता है कुछ देर आँख बंद कर लूँ इस ठहराव को महसूस करूँ ...वही का वहीं सब कुछ जहाँ से छोड़ दिया था... सोचता हूँ जीवन में सब कुछ वहीं का वहीं क्यों नही रहता जहाँ से व्यक्ति छोड़ देता है ऐसा होता तो कितना अच्छा होता न..... पर अपने नीरा मुर्खता भरी सोच पे हसने का मन होता है यार।।।ये क्या बचपना है अतुल बाबू
Thursday, 13 March 2014
एक भोजपुरिया का जाना
जले गुलशन कुमार जियत रहनी त उहाँ के गायत्री ठाकुर से बड़ी प्रभावित रहनी उहाँ के गावल राम केवट सम्वाद , लक्ष्मन परशुराम सम्वाद शिशुपाल वध कृष्णा लीला आदि के कैसेट निकलनी बाकी जस जस भोजपुरी में नवका गायक लो के प्रवेस भइल अश्लीलता बढ़े लागल अब रामायण महाभारत के जगह प फुहरपन हो गइल, मनोरंजन के टेस्ट बदल गइल त लोग सुनल कम क दिहल बाकी आज भी देश के प्रख्यात राम कथा वाचक प्रेमभूसन जी उहा गीत गावेनी त रोंवा खाड़ हो ज़ाला "की करुना निधान रउवा जगत के दाता हाई
कहें ले दास गायत्री हो ......खीच के तिन गो चिचिरी हो ......सीरी भगवान रउवा जगत के दाता हाई।।।।
एगो उहें के गीत से नमन करा तानी...... (इ गीत उहें के लिखल ह आज हमार पापा बम्बई से फ़ोन प सुनाव्लन ह हमरा के )
एमे हनुमान जी से उहाँ के कहा तानी की जाके राम जी से कही दिह की जल्दी आईं ना त सब गड़बणाता.......
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर हव पतित पावन के
जवने खातिर अवतार भइल अभिमान भइल रावण के
अब रोजे रोजे अपहरण होता चलते राह डगरिया हो .....खबरिया......
सनातन धर्म के विजय पताका हरदम जहां फहराइल हो
आइल संकट विकट घरि बा संत लोग बौराइल हो
आइल संकट जल्दी करीं रोवता अवध नगरिया हो.... खबरिया राज़ा......
जीभ बेचारी फेर में बाड़ी दांत बिच बत्तीसी के
इहंवा लोग दससीस भइल बा चरण में राखी विभिसन के
लहरी गयित्री आसरा लवले फेरबा कब नजरिया हो..... खबरिया राज़ा राम से...
हमार एगो भोजपुरी ग़ज़ल
जे कबो सबका के रस्ता बतावत रहे
देखीं उहे आज रस्ता भुलाइल बा
काल्ह घर घर में जाके हमके जोहत रहे
आज उहे अपना घर में लुकाइल बा
इहे भइल खता उनसे मुहब्बत भइल
इ दिल ना ,दरिया ह केसे बन्हाइल बा
उ आदमी ना ह सच में फरिस्ता हवे
जे गरीबन के कभी काम आइल बा
रउवा अइतीं त ऐइजा अंजोर हो जाइत
दिल के झोपडी के दिया बुताइल बा
तू नफरत फैलवला अपना कुर्सी खातिर
आज आदमी से ही आदमी डेराइल बा
अपना जिनगी के इहे हकीकत बाटे
की नेह के डोर से सभ बन्हाइल बा
एके कविता कहानी ना ग़ज़ल कहब
इ दिल के बात ह सीधे कहाईल बा
Sunday, 9 March 2014
ये उँगलियाँ ...बोलतीं हैं
माँ बाप एक दुसरे को देख के मुस्क्रातें हैं जाके देखतें है की उनका लड़का तबला बजा रहा है उनके आश्चर्य का ठिकाना नही होता है। दोनों की आँखे चमक उठती हैं वो फुले नही समाते पिता की छाती गर्व से चौड़ी हो जाती है माँ अपने लाल को चूमती है , बलैयां उतारती है
और बेटे का रुझान देखकर अपनी हार स्वीकार कर लेती है । अब पिता तबला सिखाना शुरू करतें और लड़का तबले से खेलना। जिस उम्र में आजकल माँ बाप बच्चों को बैट बाल थमा देतें हैं उस उम्र में वो पंजाब घराना के पितामह उस्ताद कादिर बक्श की गतें याद करता है। वही कादिर बक्श जिन्होंने पागल हाथी को गजपरन सूना के अपने वस में कर लिया था
पिता सिखाते जातें है और आश्चर्य से भरतें चले जातें हैं ठीक महाभारत के अर्जुन की तरह अपने अभिमन्यु को देखकर।
आपको बता दें लडके के पिता उस्ताद अल्लाह रख्खा खान हैं वो तबला के 6 घरानों में से एक पंजाब घराना के प्रतिनिधि तबला वादक हैं जिनकी दुनिया दीवानी है और माँ बाबी बेगम एक कुशल गृहणी हैं इन्ही के घर 9 मार्च 1951 को जाकिर का जन्म होता है और यहीं से शुरू होती है एक अद्भुत कलकार की यात्रा जिसने आज एक परम्परा को जन्म दिया है जिसने तबले को स्वतंत्र वाद्य की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। जाकिर की प्रारम्भिक अध्यन sent michal high schol मुंबई में होता है । 12 वर्ष की उम्र में वो पहली बार पिता के साथ विश्व भ्रमण पर निकलतें हैं । दुनिया भर में बजातें है खूब शोहरत होती है दुनिया के नामचीन कलाकारों के साथ संगति करतें है । खूब सम्मान मिलता है । कई सोलो एल्बम आतें है हीट होतें हैं भारत सरकार उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर 1988 में पदम् श्री से नवाजती है पर दुनिया भर के संगीत प्रेमियों के बिच जाकिर का नाम तब होता है जब 1992 में उनके एल्बम प्लेनेट ड्रम के लिए प्रतिस्ठित ग्रैमी अवार्ड मिलता है अब अपने पिता की के पद चिन्हों पर चलते हुए खुबसूरत व्यक्तित्व के धनी जाकिर का झुकाव फिल्मों की तरफ होता है मलयालम फिल्म वानप्रस्थ में पहली बार म्यूजिक कम्पोज करतें हैं। जिसे क़ान फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड जूरी अवार्ड मिलता है उसी फिल्म के लिए2000 में भारत सरकार उन्हें राष्ट्रिय पुरस्कार देती है वो कुछ और फिल्मो में काम करतें है जिनमें in custady ,the mystic masser , little budhha और साज़ प्रमुख हैं । भारत सरकार एक बार फिर 2002 उनकी कला का सम्मान करती है और पद्मभूसण से नवाजती है । 2005 से 2006 तक वो प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में बतौर गेस्ट प्रोफेसर भारतीय संगीत की बारीकियों को दुनिया को बतातें हैं
एक बार फिर 8 फरवरी 2009 को समकालीन म्यूजिक अलबम की श्रेणी में उनके एल्बम ग्लोबल ड्रम प्रोजेक्ट की फिर ग्रैमी अवार्ड मिलता है और भारत के कलकारो को सीना चौडा करने का अवसर ।
जाकिर के व्यक्तित्व से रूबरू होना है एक शताब्दी से रूबरू होना है सम्भव है वो "धा टित धा टित धा धा टित धाग तिना गिना" बजाये और आप विस्मित होकर रह जाएँ या फिर वो गत शुरू करें "कत धिकिट कत गदीगन"...... और जब द्रुत लय में .....नग नग बजाएं तो आप हवा में उड़ने लगें दरअसल उनका पूरा व्यक्तित्व विलछण सक्रियता का अनूठा उदाहरण हैं उनकी उपलब्धियां एक पन्ने में समेटने लायक नहीं हैं और न ही उनके योगदान को एक किताब में लिखा जा सकता है 1963 में शुरू सांगीतिक यात्रा आजतक अनवरत जारी है । आज वो साल में 150 से ज्यादा कंसर्ट करतें हैं। साथ में उनकी पत्नी Antoniya minemcola जो की एक कथक डांसर हैं रहतीं हैं । दो पुत्रियो के पिता हैं और दुनिया भर के असंख्य तबला वादकों के पितामह ।उनकी उम्र 65 है मगर जिस तरह की सजगता सक्रियता कला निपुणता और बेबाकी उनके व्यक्तित्व से प्रगट होता है वो अद्भुत है । ये महान कलाकार जीवन को समग्रता से जीने की तहजीब सिखाने के लिए प्रेरित भी करतें हैं। आज उनको जन्मदिन की बधाई और दीर्घायु की कामना ताकि दुनिया उनके थाप से आनंदित होती रहे।।।।
Saturday, 15 February 2014
सुर की जाती ,धरम नहीं है
कार्यक्रम के सिलसिले में अक्सर यात्रावों में रहना होता है। कभी कभी यात्रायें इतनी ज्यादा हो जाती है की जीवन खानाबदोश जैसा लगने लगता है ।हर दुसरे दिन नई जगह नए लोग नई उमंग (हालाकि हम निम्न मध्यमवर्गीय कलाकार है फिर भी )नये मंच के अनुसार नई चुनौतियाँ .....एक जगह कार्यक्रम समाप्त हुआ फिर दुसरे जगह फिर तीसरे ,क्रम चलता है जगहे बदलती है लोग बदलते जाते है ।कही खूब सम्मान होता है कही कही लगता है साला अब पान की दुकान खोल लेंगे ये भी बदलता है ।पर इसका सबसे सुखद पहलू है की हमारी एक चीज नही बदलती वो है हमारी भाषा इसको बोलने और समझने वाले हर जगह मिल जाते है न इसका इण्डिया और अमेरिका से मतलब है न इसे हिन्दू मुश्लिम से मतलब है न किसी पन्थ वाद से अनपढ़ भी समझ जाता है और पि एच डी वाला भी ।वो है हमारी सुर ताल की भाषा -जो सीधे दिल से निकलती है और दिल तक पहुचतीं है। हम देस दुनिया के किसी कोने में चले जाये मंच पे बैठे अपने साज को अभी छेड़ा तब तक श्रोतावो के सबसे अंतिम पात में बैठा व्यक्ति देख के हौले से निर्दोष बच्चे सा मुश्करा के सर हिलाता है तो लगता है ओह हमारी भाषा कितनी सशक्त है यार अभी तो कुछ किया भी नही और दिल में उतर गई:)
यूं ही........
हर अजान में सुर बजते है
कान्हा बंसी संग सजते है
नानक के हर शबद राग मे.....
सुर की जाती धरम नही हैं।
Friday, 14 February 2014
दिल की बात है जरा देख भाल के-अतुल कुमार राय
मित्रों
ब्लॉग बनानें से ये तात्पर्य कतई नही है की अब मै लेखक हो गया, क्योंकी आमतौर पे लेखकों के ब्लॉग होतें हैं ,पर यकीन मानें ये एक पाठक का ब्लॉग है जिसे अभी पढना भी ठीक से नही आता। पर मुझे कभी कभी लगता है की जिस दिन पढना ठीक से आ गया उस दिन लिखना अपने आप आ जायेगा। बस दो चार बातें हैं......
पढना जारी रखते हुए लिखना खुद से मिलनें की कोसिस भर है एक आत्म संवाद कायम करना है ताकी आत्मसुधार हो सके पहले इसके लिये डायरी जैसा निजी लेखन हुआ करता था जिसमें लेखक स्वयं पाठक होता था। पर सोशल मिडिया ने उसे आउटडेटेड बना दिया है और आज समय के साथ कदम ताल मिलाना जरूरी है।
लिखना खुद से मिलने जैसा क्यों है ?होता क्या है की हम दिन भर दुसरो से तो मिलतें हैं पर ये सोच भी नहीं सकते की खुद से मिला भी जा सकता है किसी शायर ने कहा है की "हरदम तलाश ए गैर में रहता है आदमी -डरता है कभी खुद से मुलाकात न हो जाए" खुद से मिलने के अपने खतरें हैं हमने जो नकाबें ओढ़ रखि हैं उनके गिर जाने का खतरा है ।
कोई भी सृजन कला हमें अपने आत्मा से मिलवाती है कुछ गाते बजाते लिखते या रचते वक्त हम अपने सबसे करीब होते हैं ये सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
आपको बता दे शब्दकोश बड़ा छोटा है मेरा बहुत अलंकारिक भाषा शैली नही है दिल से निकले दो चार सीधे सपाट शब्द है जो बिना लाग लपेट निकलते जाते हैं लिखने में उतने ही धैर्य की जरूरत है जितना की कोई धारावाहिक कहानी पढने या ध्रुपद सुननें में यहाँ तो सब कुछ जल्दी जल्दी निकलना चाहता है।
मित्रों मै संगीत का विद्यार्थी हूँ अक्सर संगीत पे कुछ न कुछ पढता रहता हू ।पर अधिकांश जगह देखता हू लेखक अपने लेखन प्रतिभा से वाकिफ कराने के चक्कर में संगीत जैसी ह्रदयस्पर्शी विषय की सहजता समाप्त कर देतें हैं जिसमें उनकी लेखन प्रतिभा तो खूब चमकती है पर संगीत हाशिये पर चला जाता है
मित्रों जो मुझे सहज नही लगता वो मुझे अश्लील लगता है ये अश्लीलता थोड़े उच्च स्तर की है इसलिये छम्य है ।दुःख होता है पढ़ कर
इसलिये मेरा ये प्रयाश रहेगा की संगीत सम्बन्धी कुछ ज्व्ल्लंत मुद्दों पर अपनी बात यहाँ रख सकूँ
मेरा संगीत के साथ साहित्य दर्शन और अध्यात्म में बराबर की रूचि रही है इनमे से संगीत को किसी एक से भी अलग नही किया जा सकता
अध्यात्म मेरे लिए किसी देवता विशेष की पूजा नही वरन अपने अंतस की खोज है जिसमें संगीत सबसे बड़ा सहयोगी है नाद को ब्रह्म कहा गया है इसके बारे में फिर कभी
फिलहाल ब्लॉग नाम रखने के पीछे ओशो की एक बड़ी प्यारी कथा है जो मुझे बहुत प्रीतिकर है आप भी पढ़ें
एक युवक ने मुझ से पूछा, ''जीवन में बचाने जैसा क्या है?'' मैंने कहा, ''स्वयं की आत्मा और उसका संगीत। जो उसे बचा लेता है, वह सब बचा लेता है और जो उसे खोता है, वह सब खो देता है।''
एक वृद्ध संगीतज्ञ किसी वन से निकलता था। उसके पास बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं थीं। मार्ग में कुछ डाकुओं ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसका सारा धन तो छीन ही लिया, साथ ही उसका वाद्य वायलिन भी। वायलिन पर उस संगीतज्ञ की कुशलता अप्रतिम थी। उस वाद्य का उस-सा अधिकारी और कोई न था। उस वृद्ध ने बड़ी विनय से वायलिन लौटा देने की प्रार्थना की। वे डाकू चकित हुए। वृद्ध अपनी संपत्ति न मांगकर अति साधारण मूल्य का वाद्य ही क्यों मांग रहा था? फिर, उन्होंने भी सोचा कि यह बाजा हमारे किस काम का और उसे वापस लौटा दिया। उसे पाकर वह संगीतज्ञ आनंद से नाचने गा और उसने वहीं बैठकर उसे बजाना प्रारंभ कर दिया। अमावस का रात्रि, निर्जन वन। उस अंधकारपूर्ण निस्तब्ध निशा में उसके वायलिन से उठे स्वर अलौकिक हो गूंजने लगे। शुरू में तो डाकू अनमने पन से सुनते रहे, फिर उनकी आंखों में भी नरमी आ गई। उनका चित्त भी संगीत की रसधार में बहने लगा। अंत में भव विभोर हो वे उस वृद्ध संगीतज्ञ के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने उसका सारा धन लौटा दया। यही नहीं, वे उसे और भी बहुत-सा धन भेंटकर वन के बाहर तक सुरक्षित पहुंचा गये थे।
ऐसी ही स्थिति में क्या प्रत्येक मनुष्य नहीं है? और क्या प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन ही लूटा नहीं जा रहा है? पर, कितने हैं, जो कि संपत्ति नहीं, स्वयं के संगीत को और उस संगीत-वाद्य को बचा लेने का विचार करते हैं?
सब छोड़ो और स्वयं के संगीत को बचाओ और उस वाद्य को जिससे कि जीवन संगीत पैदा होता है। जिन्हें थोड़ी भी समझ है, वे यही करते हैं और जो यह नहीं कर पाते हैं, उनके विश्व भर की संपत्ति को पा लेने का भी कोई मूल्य नहीं है। स्मरण रहे कि स्वयं के संगीत से बड़ी और कोई संपत्ति नहीं है।