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Saturday, 31 May 2014

तराना : मातम का संगीत

संगीत के ग्रंथों में परस्पर विरोधाभास नें आज संगीत के छात्रों के सम्मुख बड़ा ही भ्रमात्मक स्थिति उत्पन्न कर दिया है.ग्रंथों में इतने मतभेद हैं की समझ में नहीं आता की सच किसे माना जाए.संगीत के छात्रों में शास्त्र के प्रति अरुचि होने की प्रमुख वजह एक ये भी है.जो भी थोड़ा बहुत रूचि लेतें हैं ,वो इस मतभेद और विरोधाभास के आगे हाथ खड़ा कर अपना सारा ध्यान रियाज पर केन्द्रित कर देतें हैं. गुरुमुखी विद्या और प्रारम्भ में शास्त्रों के प्रति उदासीनता होने के कारण  उत्पन्न इस मतभेत से संगीत की विभिन्न विधाएं आज भी प्रभावित हैं .

एक छोटा उदहारण लें ,ख्याल गायन की सबसे मजबूत कड़ी 'तराना' है ,जो साधरणतया मध्य और द्रुत लय में गाया जाता है. जिसमें 'नोम ,तोम ,ओडनी ,तादि,तनना, आदी शब्द प्रयोग किये जाते हैं।कुछ लोग इसकी उत्पत्ति कर्नाटक संगीत के तिल्लाना से मानतें हैं.तो कुछ का मानना है की तानसेन ने अपनी पुत्री के नाम पर इसकी रचना की.संगीत के सबसे मूर्धन्य विद्वानों में से एक ठाकुर जयदेव सिंह की मानें तो इसके अविष्कारक अमीर खुसरो हैं. अब स्वाभाविक समस्या है की ...सच किसे मानें ?
हमारा भी दिमाग चकराया ,फिर इन तमाम विषयों पर कई लोगों को पढ़ा, उन्हें नोटिस किया ,लगा की आज औपचारिक शोध के दौर में कुछ लोग बेहतर कार्य कर रहें हैं और नित नये खोज और जानकारियाँ एकत्र कर संगीत के भंडार को समृद्ध कर रहें हैं. उन्हीं में से एक नाम है ,डा हरी निवास द्विवेदी जी का जिनकी किताब 'तानसेन जीवनी कृतित्व एवं व्यक्तित्व' ने मुझे प्रभावित किया और पढने के बाद कई अनछुए और अनसुलझे पहलू उजागर हुए..तानसेन के बारे में कई भ्रम दूर हुए तो कई जगह बेवजह महिमामंडन और भ्रांतियां दूर हुईं ..इसी किताब में वर्णित  एक मार्मिक घटना ने तराना की उत्पति के सम्बन्ध में फैले मतभेद को कुछ हद तक जरुर कम किया है और  व्यक्तिगत रूप से मुझे ये सत्य के निकट मालूम पड़ता है . अब जो भी हो
ये बात 1580 के आस पास की है ,सम्राट अकबर का सम्राज्य विस्तार जारी था.अपने पराक्रम से सम्राट ने अनेक राज्य जीते .
कहतें हैं 1587  में जब गुजरात विजय अभियान की शुरुवात हुई .उस अभियान में तानसेन भी अकबर के साथ थे
एक दिन शाही सेना अहमदाबाद में साबरमती नदी के  किनारे  पड़ाव डाले हुई थी.तब बादशाह की संगीत प्रेम से प्रभावित एक स्थानीय संगीतकार नें बैजू की दो पुत्रियों के अद्भुत गायन और कला निपुणता की खबर पहुँचाई .ये सुनकर अकबर से रहा न गया उसने बुलावा भेजा और गायन के लिए आमंत्रित किया .बैजू की मृत्यु के बाद उत्पन्न विषाद और विपन्नता की स्थिति से गुजर रहीं उनकी दो पुत्रीयों ने भारी मन से आमंत्रण स्वीकर किया...कहतें हैं उस अद्भुत गायन को सुनकर अकबर क्या तानसेन भी रोने लगे थे..भारत वर्ष के संगीतकारों के बीच ये खबर पहुंच गई ,सब जानने के लिए उत्साहित की आखिर वो कौन है ,जिसने तानसेन को रुला दिया . कहतें हैं अकबर बड़ा प्रभावित हुआ और तानसेन को आदेश दिया की इनको फतेहपुर सीकरी के दरबार में लाया जाय तानसेन को ज्ञात हुआ की ये राजा मानसिंह तोमर संगीतशाला के वरिष्ठ आचार्य बैजू की पुत्रियाँ हैं जिनका नाम बैजू ने बड़े प्रेम से 'तोम' और 'ताना' रखा था .तानसेन न चाहते हुए भी शाही फरमान को मानने के लिए विवश थे.
उन्होंने दोनों के सम्मुख बादशाह के प्रस्ताव को रखा .इस प्रस्ताव को भारी विपत्ति समझ बैजू की दोनों पुत्रियों ने  तानसेन से अकबर को ये  खबर भिजवाया की ,वो दो दिन बाद आ जायेंगी।
ठीक दो दिन बाद बादशाह द्वारा सुसज्जीत  पालकियां भेजी गयी...फतेह पुर सीकरी आकर पर्दा उठाया गया तो दोनों बहनों के शव प्राप्त हुए...इसके बात तो कहतें हैं की बादशाह को इतना दुःख हुआ जितना जीवन में कभी न हुआ था...उसने पश्चाताप करने के लीये अनेक जियारतें और तीर्थयात्राएँ की .इस हृदयविदारक घटना के बाद तानसेन को सामान्य होने में वक्त लगा था .इसी घटना से व्याकुल होकर तोम और ताना की याद में  'तराना' गायन प्रारम्भ किया ।
आज भी कभी कभी मैं ख्याल सुनतें वक्त तराना के समय असहज हो जाता हूँ ....ये सच में मातम का संगीत है ?क्या कई बार ऐसा लगा है...

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