कार्यक्रम के सिलसिले में अक्सर यात्रावों में रहना होता है। कभी कभी यात्रायें इतनी ज्यादा हो जाती है की जीवन खानाबदोश जैसा लगने लगता है ।हर दुसरे दिन नई जगह नए लोग नई उमंग (हालाकि हम निम्न मध्यमवर्गीय कलाकार है फिर भी )नये मंच के अनुसार नई चुनौतियाँ .....एक जगह कार्यक्रम समाप्त हुआ फिर दुसरे जगह फिर तीसरे ,क्रम चलता है जगहे बदलती है लोग बदलते जाते है ।कही खूब सम्मान होता है कही कही लगता है साला अब पान की दुकान खोल लेंगे ये भी बदलता है ।पर इसका सबसे सुखद पहलू है की हमारी एक चीज नही बदलती वो है हमारी भाषा इसको बोलने और समझने वाले हर जगह मिल जाते है न इसका इण्डिया और अमेरिका से मतलब है न इसे हिन्दू मुश्लिम से मतलब है न किसी पन्थ वाद से अनपढ़ भी समझ जाता है और पि एच डी वाला भी ।वो है हमारी सुर ताल की भाषा -जो सीधे दिल से निकलती है और दिल तक पहुचतीं है। हम देस दुनिया के किसी कोने में चले जाये मंच पे बैठे अपने साज को अभी छेड़ा तब तक श्रोतावो के सबसे अंतिम पात में बैठा व्यक्ति देख के हौले से निर्दोष बच्चे सा मुश्करा के सर हिलाता है तो लगता है ओह हमारी भाषा कितनी सशक्त है यार अभी तो कुछ किया भी नही और दिल में उतर गई:)
यूं ही........
हर अजान में सुर बजते है
कान्हा बंसी संग सजते है
नानक के हर शबद राग मे.....
सुर की जाती धरम नही हैं।
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