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Friday, 18 December 2015

नांच काँच हं....बात साँच ह

नाच काँच ह...बात साँच ह।

आज से  पचास  साठ साल पहले का समय...अपनी बदहाली और बेबसी पर रोता हुआ छपरा का क़ुतुबपुर दियारा...घोर जमीदारी और सामन्तवाद से लड़ते गरीब अपनी गरीबी और अभाव से कम अपने गाँव के बार बार बदलने वाले  भूगोल से ज्यादा परेशान हैं....उनका गाँव तीन  ओर पानी से घिरा हुआ है... जहाँ जेठ में भीषण गर्मी,माघ में भीषण  ठण्डी और रही सही कसर भादो में गंगा  माई तबाही मचा कर पूरा देती हैं..... रोजी रोजगार के भगवान मालिक हैं..हैजा प्लेग ने एक बार नहीं कई बार आक्रमण करके गाँव का तबाह कर दिया है....शहर,बिजली,बत्ती,सड़क स्कूल,अस्पताल  सपने सरीखें है... समझ में नहीं आता  कि देश कि कौन सी पंचवर्षीय योजना में इस गांव का उद्धार होगा..
हम 4G में जी रहे हैं लेकिन आज भी हालात वहां  बहुत नहीं बदले..गाँव आज भी तमाम  मूलभूत समस्यायों से जूझ रहा है।लोग अब उसी हालात में जीने को अभ्यस्त और अभिशप्त हैं।
सौभाग्य से आज से 6 साल पहले उस गाँव में मेरा जाना  हुआ..क्योंकि वो गांव साधारण गाँव नहीं है..वो मेरे जैसे हजारो लाखों कलाकारों का तीर्थ स्थल है...
क्योंकि उसी अभागन माटी  ने  एक ऐसा लाल एक ऐसा हीरो पैदा किया था जो लोक कला रूपी  आकाशगंगा का चमकता हुआ ध्रुवतारा है....जिसको  कभी अपने हालात से शिकायत नहीं रही.. जिसे उम्र के तीसवें बसन्त तक पता नहीं था कि उसे क्या करना है ..जिसने तमाम  आर्थिक सामाजिक दुश्वारियां झेलकर भी गरीबी अभाव परेशानी जैसे शब्दों को उसकी  औकात बताकर खुद को इतना बुलन्द किया था  कि उसके आगे बड़े बड़े आज भी बौने हैं....जिस भिखारी के कलाकार कोई  एनएसडी से पास आउट नहीं  बल्कि दिन भर मजदूरी खेती करने और समाज से दुत्कारे  गए  लोग थे...जिनको कभी देखने के लिये सैकड़ो मील पैदल चलकर हजारो लोग उमड़ते थे....
वो शख्स अपने नाटको में  कभी शेक्सपियर तो कभी ब्रेख्त  था.गीतों कबीर   और  दोहे में जायसी भी..कभी भक्ति में तुलसी और वात्सल्य में  सूर...तो कभी प्रेम में मीरा बन जाता था...कभी स्त्री विमर्श और साम्यवाद  के साथ समाजवाद को छूता तो कभी हाशिये में बैठे पलायन कर रहे गरीबों के आंसूवों  को पोछ देता था।
जिसके गीत,नाटक और अभिनय के दीवाने बच्चे ,बूढ़े ,जवान,अनपढ़,बुद्धिजीवी,राजा और  रंक सब थे।
जिसके नाटक बेटीबेचवा को देखकर एक बार गाँव की लड़कियां विद्रोह कर देती थीं कि वो अपने पिता के हाथो खुद को बिकने नहीं देंगी।
जिसके नाटक विदेसिया को आज भी देखने के बाद पता न कब लोग रोने लगते हैं...जिसमें विदेसी, प्यारी सुंदरी,बटोही और रखेलिन  दुःख दर्द हास्य में बार बार डूबातें हैं ।
तो  कभी  उसमे छिपा अध्यात्म तत्व  हमे  आश्चर्य में डालता है...जहाँ विदेसी रूपी जीव को  माया रूपी रखेलिन से बचाकर  उपदेश रूपी बटोही ब्रह्म  और जीव का मिलन करा देता है...
दूसरी ओर आज भी गबरघिचोर का गड़बड़िया बार बार सोचने पर मजबूर करता है । पचास साल पहले स्त्री  सशक्तिकरण के प्रयास का अनोखा उदाहरण है ये नाटक।
विधवा विलाप सुनकर कलेजा मुंह को आ जाता है ।  राधे श्याम बहार.बहरा बहार, नट-नटीन, गंगा स्नान जैसे दर्जनों नाटक सैकड़ों गीत भजन चौपाइ छंद सवैया आज भी प्रेम से गाये बजाए जा रहें हैं।
जिसने मरने के पहले बता दिया की शनिचर को मर जाऊँगा..और  साथ ही ये भी कि अभी मेरा थोड़ा सा नाम हुआ है...कुछ दिन बाद कवि सज्जन और बुद्धिजीवी सब मेरा गुण गाएंगे।
आज उसी आदर्श और महान आत्मा,कला के सबसे बड़े धनी  संत भिखारी ठाकुर  का जन्मदिन है...
जिस भिखारी से हमारा लोक हमारा साहित्य  समृद्ध है।
ये सच है कि भिखारी ने अपने समय में लोकप्रियता के शिखर को छुआ लेकिन आज भिखारी ठाकुर जी को  जो सम्मान को प्राप्त हैं वो जीते जी उनको नसीब न हो सका था...
उससे ज्यादा ये भी कि आज भी उनके संगीत साहित्य का सर्वांगीण मूल्यांकन बाकी है...
कुछ मार्क्सवादी आलोचकों ने उनको कामरेड भिखारी ठाकुर बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है....जिसके कारण उनका आध्यात्मिक पक्ष गौण हो  जाता है जो बार बार  अनपढ़ भिखारी को कबीर और जायसी के समक्ष खड़ा करता है।
आज उस अनपढ़ भिखारी के ऊपर पीएचडी करके सैकड़ो लोग प्रोफेसर हो गए.....
बहुत लोग उनके नाम को भुनाकर खुद को चमका लिए...अपने जीवन में अपमान का कड़वा घूंट पीने वाले भिखारी के नाम का भिखारी ठाकुर सम्मान पाकर कुछ अराजकता के महारथीयों ने उनकी घोर बेइज्जती भी किया है।
लेकिन भिखारी से आज भी सबको बहुत कुछ सीखना है बहुत कुछ जानना है।
बकौल केदार नाथ सिंह।

"पर मेरा ख़याल है
चर्चिल को सब पता था
शायद यह भी कि,रात के तीसरे पहर
जब किसी झुरमुठ में
ठनकता था गेहुंवन
तो नाच के किसी अँधेरे कोने से
धीरे धीरे ऊठती थी
एक लम्बी और अकेली
भिखारी ठाकुर की आवाज
और ताल के जल की तरह
हिलने लगती थीं
बोली की सारी
सोई हुई क्रियाएं

और अब यह बहस तो चलती ही रहेगी
कि नाच का आज़ादी से
रिश्ता क्या है
और अपने राष्ट्रगान की लय में
वह ऐसा क्या है
जहाँ रात-बिरात जाकर टकराती हैI
बिदेशिया की लय"





Friday, 10 July 2015

भिखारी आ कबीर

भ से भोजपुरी आ भ से भिखारी ठाकुर......शायद 'भोजपुरी के भिखारी ठाकुर पर्यायवाची हई' इ कहल जाव त कवनो अतिशयोक्ति ना होइ.....
भोजपुरी से भिखारी  के अलग क दिहल जाव त भोजपुरी साहित्यिक और सांस्कृतिक रूप से भिखारी के हाल में हो जाई.....आज एही भिखारी के कारण हमनी के समृद्ध बानी जा...
भिखारी ठाकुर जी सूत्रधार के भूमिका में रहनी..उहाँ के सामने  बरियार  समस्या रहे...लिखे पढ़े से लेके रचना करे आ फेर आपन बात कलाकारन के समझावे के भी रहे...आर्थिक आ सामजिक रूप से पिछड़ल गाँव बुनियादी सुबिधा के घोर अभाव के उहां का हिम्मत के संगे सामना कइनी......
हम उहाँ के रचना संसार प आपन बात राखब..
दोहा ,चौपाई ,सवैया, छंद  अउर जँतसार ,लोरिक फेर कुंवर विजयी के लय..सोरठी बृजभार नल दमयंती ,राजा भरथरी , सती बिहुला ,पचरा ,बिरहा,  डोमकच, पवरिया ,धोबी धोबिन सम्वाद ,सोहर. कजरी ,झूमर .पूरबी निरगुन ,कीर्तन आ ग़ज़ल  से लेके..
तमाम संस्कार गीतन के रस तत्त्व सब उहाँ के नाटकन में भरल बा।
फेर रीती कुरीति ,मर्यादा  आदर्श ,त्याग ,तपस्या के बारी बारी से अरथ उहाँ के एक एक गो नाटक में देखे के मिलेला....बूढ़ लोगन के ज़िम्मेदारी फेर आदमी से आदमी के व्यवहार नारी सम्मान और स्त्री बिमर्श ,सूदखोर जमीदारं के अत्याचार  ,धार्मिक पाखण्ड बेटी बेचवावे  वाला दलालन के नीचता ,सब मोती के तरह  उहाँ के रचना संसार में सजल बा।
1917-18 में विदेसिया के माध्यम से पलायन आ विस्थापन के दर्द आ स्त्री मर्यादा के सवाल भी उठावनी...बेटी वियोग नाटक में बेटी बेचवन के खबर भी लिहनी...एह नाटक के माध्यम से उहाँ के अनमेल बियाह के दुर्दशा के खिलाफ एगो बरियार सांस्कृतिक माहौल तैयार कइनी..जहाँ जहाँ इ नाटक भइल उहाँ बेटी बेचाये बन्द हो गइल.......उहाँ के सब नाटक एगो सांस्कृतिक हथियार रहे । गबरघिचोर गंगा स्नान , विधवा विलाप, पुत्र बध ,कलियुग प्रेम राधेश्याम बहार ,भाई विरोध इ सब यहां के हथियार के असली कारतूस ह जवना से एगो   बरियार सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा भइल आ एकर समाज के मनोदशा पर ब्यापक प्रभाव पड़ल.....
एह कारण उहाँ के एगो आम आदमी के कलाकार एगो जनता के कवि हो गइनी....
आज भिखारी ठाकुर के नाव के आगे महान लोक कलाकार और जन कवि लागेला...
लेकिन हमरा इ कई हाली लागल बा की भिखारी ठाकुर के अभी समग्र मूल्यांकन बाकी बा...तमाम मार्क्सवादी आलोचक मूल्यांकन त कइले बढ़िया से ,बाकी एगो बरियार आ महत्वपूर्ण पहलू के छोड़ दिहलन... उ रहे आध्यात्मिक पक्ष ,जवन भिखारी ठाकुर के कबीर आ मलिक मुहम्मद  जायसी के सामने खड़ा करेला..हम तमाम आलोचक लोग के कवनो  दोष ना मानेनी...कारण मार्क्सवाद के अध्यात्म से मुकदमा बाटे..
लेकिन एह मुकदमा के कारण अतना महान व्यक्ति के रचना संसार से अन्याय होखे इ कइसे बर्दास्त होइ....
एगो छोट उदाहरण विदेसिया नाटक से देब जहाँ समझ में आई की विदेसिया पलायन आ विस्थापन के दर्द ना ह ई त जायसी के पद्मावत ह....जवना के आलोचक लोग जान बूझ के छोड़ देले बा.....
विदेसिया के शुरुवात में सूत्रधार के सम्वाद बा...
"विदेसी ब्रह्म , प्यारी सुंदरी जीव..रखेलीन माया आ  बटोही उपदेश...एह चारो के सम्वाद होखे के चाहीं..." एह चारो के सम्वाद ही विदेसिया नाटक ह।।
इहाँ भिखारी ठाकुर जी के दूर दृष्टी के एगो छोट झलक मिलेला...आ बतावे ला की भिखारी ठाकुर दोसरका कबीर आ जायसी हई।
आज विदेसी रूपी जीव..रखेलीन रूपी माया में अझुरा गइल बा.....मोह माया में  फंस के ई भुला गइल बा की उ का करे आइल बा....ओकर त जन्म भइल रहे ब्रह्म से मिलन खातिर बाकी रखेलीन रूपी माया नोकरी चाकरी घर परिवार आफिस में अइसन अझुराइल की प्यारी रूपी ब्रह्म के भूला गइल।
एह मोह माया के काट के कवनो उपदेश रूपी बटोही के सत्संगति से ही ब्रह्म रूपी प्यारी के भेंट सम्भव बा......इ जब भेंट होइ त मानब जीवन सफल होइ..आ फेर चौरासी लाख योनि में ना भटके के पड़ी..
आप जब विदेसिया के विस्थापन आ पलायन के दर्द से ऊपर जाके देखब तब समझ में आई भिखारी ठाकुर महज कवि कलाकार ना रहलन।
बाकी भिखारी ठाकुर के इ पक्ष के आज ले केहू नइखे छूवले...जब एकर मूल्यांकन होइ..त पता चली की उहाँ के महानता माउंट एवरेस्ट से भी लमहर बा....
आ ओहि दिन भोजपुरी अपना गुदड़ी के लाल प इतराई...सबके मालूम होइ की भिखारी सिर्फ एगो नाटककार ना हवन बल्कि एगो सन्त हवन...जवन कबीर आ जायसी के सामने खड़ा होके हंस सकेला।।
नमन।।

Tuesday, 11 March 2014

भिखारी प्रेम

इधर कमबख्त जीवन का बाइसवां बसंत बीत रहा है। होली की तैयारियों का खाका खिचां जाने लगा है। इस साल कुछ नई भौजाइयों की संख्या में श्रीवृद्धी हो गई है:)। तन मन फागुनी उमंगो से पगा है। कभी कभी फगुवा गाने का मन करता है तो कभी धमार सुनने का मन करता है तो कभी बसंत पर किसी सुप्रसिद्ध कवि की कविता पढने का मन करता है।
आज यूँ ही मस्ती में अस्सी घाट से चले आ रहे थे, तो एक हिन्दी के शोध छात्र (जो नाटक पर शोध कर रहें हैं) ने ये कह के रंग में भंग डाल दिया की भिखारी ठाकुर के गीतों के साहित्य में दम नही है ,भले उनके नाटक के कथ्य मजबूत हों ,वो भोजपुरी के शेक्सपियर कहें  जायें ,पर उनके गीतों में वो बात नही है ,जितना उनको महिमा मंडित किया जाता है।
हम बायें हाथ से कपार पिटे...... मन ही मन यू जी सी को दो चार अस्सी घाट वाली.......... सुनाये "की यूँ ही रेवड़ियो की तरह जूनियर रिसर्च फेलोशिप बांटते गये न...... तो भगवान ही मालिक हैं।
हम क्या कहते उनसे .....कलाकार बनने की प्रक्रिया में हैं अभी तो भिखारी से अगाध प्रेम करतें हैं रहा न गया। बस इतना ही कहा की माननीय हम आपसे 8 साल छोटें हैं और कहाँ गाना बजाना करतें हैं आप शोध छात्र हैं साहित्य की समझ पर आपका एकाधिकार स्वभाविक है।
बुरा न मानियेगा अभी आपको भिखारी ठाकुर को ठीक से पढने की जरूरत है
कल को प्रोफ़ेसर होंगे आप ।ये बात अपने किसी छात्र से मत कहियेगा बंधू
उन्होंने मुझे थोडा उपर नीचे देखा... मेरी बातो पर उनका संशय भी ठीक ही है आखिर मेरी क्या मजाल की एक शोध छात्र को समझा दूँ।
दोस उनका भी नही सच तो ये है की भिखारी की पूरी आलोचना अभी बाकी है भाई। इधर कुछ मार्क्सवादी आलोचकों ने मात्र उनको जनवादी नाटककार , कलाकार ही घोषित किया हुआ है। वो तो भला हो इधर कुछ ने भिखारी में जर्मन कवि और नाटककार ब्रेख्त की तलाश कर ली है की दोनों की शैली एपिक थिएटर वाली थी।
पर भिखारी में अभी बहुत कुछ मिलना बाकी है। मुझे लगता है की उनके नाटको को जिस दिन मार्क्सवादी चश्मा हटा के पढना शुरू किया गया न उस दिन भिखारी कबीर और जायसी के सामने हसंते हुये खड़े मिलेंगे और उनके विदेसिया को पदमावत के सामने रखा जायेगा।
बहरहाल हमने माननीय शोध छात्र जी को एक छोटा उदाहरण गबरघिचोर से दिया। और बसंत पर कविता पढने की तमन्ना भी पूरी कर ली।
जब गलीज अपनी ब्याहता को घर बैठा के बाहर चला जाता है इधर गडबडिया के गडबड करने से एक बेटा जन्म लेता है कोई शहर में जाके गलीज से कह देता है की गलीज तोहरा बेटा भइल बा
गलीज अपना बेटा लेने गाँव आता है ।
उसकी विधवा सरीखी पत्नी जब उसे देखती है तो उसकी प्रसन्नता को भिखारी लिखतें हैं।
"कमल उछाह जैसे सुरुज प्रकाश होत
कुमुद उछाह जैसे चन्द्रमा हरसते
भौरन उछाह जैसे आगमन बसंत जानी
मोरन उछाह जैसे बरखा बरसते
हंसन उछाह जैसे मानसरोवर बीच
साधन उछाह.........................
सबके उछाह एहीं भातीं उर होत रहे
हमरे उछाह स्वामी तोहरे दरसत

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