वो जब कालेज से निकलकर आपस में मिलतें हैं तो हंसते हैं खूब...बात करते हैं देश की, दुनिया की,राजनीति की,पढ़ाई की..कैरियर की,लेकिन मामला अटक जाता है उस दुनिया की सबसे बड़ी समस्या पर...जिसे केमिकल लोचा कहतें हैं... "अबे उस स्कूटी वाली को पटावोगे ?या मैं पटा लूँ"....गजब लगती है बे ".
तब तक कोई वास्कोडिगामा का सगा समधी अवतरित होकर सबके सपने पर गंगा जल छिड़क देता है....और किसी असफल कथा वाचक की मुद्रा में आकर बोलता है"अरे सालों कमीनों कुत्तों...बाल्टी में कूदकर जान दे दो..अबे थोड़ा बहुत तो शर्म कर लिया करो....वो विकास की बहन है...अपना विकास......कम से कम इतना तो ख्याल करो।"
लिजिये साहेब..इस नैतिकता की अमृत वाणी से रस परिवर्तन होता है और उस महफिल से व्यंग भरी हंसी गूंजती है....
"वाह मिसिर रजा..मने पहले ही पता लगा लिए हो"
मिसिर रजा जानतें है की आर्ट फैकल्टी और महिला महाविद्यालय की लड़कियों को आईटी और मैनेजमेंट वाले लड़के ही रणबीर कपूर लगते हैं....बाकी इन सबको तो राजपाल यादव दूर की बात है शक्ति कपूर भी नहीं समझतीं।
फिर भी उन्हें इसका दुःख नहीं कि कब उन पर कोई नाज़नीं प्यार के रस बरसायेगी?...वो तो सामने वाली हर लड़की को देखते ही सोचतें हैं..
"आह..काश पट जाती"
वो शहर में कमरा खोजते वक्त इस बात का ख्याल रखतें हैं कि.. "सामने वाली खिड़की में चाँद का टुकड़ा रहता " हो या न हो लेकिन एक दो लड़कीयां जरूर रहनीं चाहिए..थोड़ा इससे पढ़ाई में मन लगता है और आत्मा उत्साहित और प्रफुल्लित रहती है।।
लिजिये उन्हें इसका भी गम नहीं कि वो लिवाइस स्पायकर और मफ्टी कब पहनेंगे? वो तो वी मार्ट और विशाल मेगा मार्ट से 499 की जीन्स खरीदकर ही खुश रहतें हैं.
वो एडिडास, रीबॉक को बस दूर से निहारतें हैं।
और देखिये न उनके दिमाग में पता न कहाँ से ये बात बैठ गई है कि बड़े लोग सब कुछ ब्रांडेड पहनते हैं.... सो वो बड़ा बनने के चक्कर में एक दिन बचे हुए पैसे से जॉकी का अंडरवियर खरीद लातें हैं..और साथ के चार लौंडों को दिखाते हुए कहतें हैं....."देख रे असतोस एक जीन्स लिये हैं और एक जॉकी का अंडरवियर"
उनको पता नहीं कि एंड्रॉयड लॉलीपॉप और किटकैट में कितना अंतर है..वो आज भी दूसरे के महंगे चमचमाते स्मार्ट फोन को देखकर उदास होते हुए भी अपने मोबाइल के ओएस जावा ,सिम्बियन को बेस्ट बतातें हैं। और कार्बन माइक्रोमैक्स लेने का सपना देखतें हैं।
उनके मोबाइल में हनी सिंग मीका कम उदित नारायण और कुमार सानू ज्यादा होतें है।
वो जानना भी नहीं चाहते कि पिज़्ज़ा हट और मैकडोनाल्ड में क्या अंतर है..
उनको तो जब पार्टी करने का मन करता है तो पूरे मोहल्ले में हल्ला करते हुए पनीर की सब्जी और पूड़ी बनाते हैं....
हाँ ये सही है कि उनके कमरे बिखरे हुए होते हैं..पन्द्रह दिन पर एक बार झाड़ू लगाया जाता है...एक महीने पर कपड़ा साफ़ किया जाता है..और खाना बनाने के ठीक पहले ही बर्तन धोया जाता है....दीवाल पर कभी न पालन होने वाली समय सारिणी के साथ अलिया भट्ट की नंगी पीठ वाली फ़ोटो जरूर चिपकी होती है...
वो mc bc भले करतें हैं....लेकिन उनके द्वारा रोज रात को सामूहिक रूप से शान्ति की मुद्रा में कई किस्म की फिल्में भी देखीं जातीं हैं...
इसके बाद झगड़ा भी होता है कि "अबे आटा कौन गुथेगा..ई सनी लियोन ?
फिर खाना खाकर टेबल तोड़ ठहाका के साथ चर्चा भी होता है कि "आज मनोजवा अपने रूम पर अपनी गर्लफ्रेंड को बहन बनाकर लाया था"
उनके बेड पर किताबें कलम..अख़बार पत्रिकाएं सब इस अंदाज में बिखरी हुई होतीं हैं..मानों ऐसा विद्यार्थी इक्कीसवीं सदी में पैदा ही नहीं हुआ है। आज 5 महीने से हर रात को सोने से पहले सोचते हैं..."कल से साला पाँच घण्टा पढ़ेंगे।" लेकिन कभी नहीं पढ़े।
हर सुबह उनके कमरे से साधना अगरबत्ती की सुगन्ध के साथ सुंदर काण्ड की चौपाई गूंजती है.....
"राम दूत मैं मातु जानकी
सत्य शपथ करुणा निधान की"
और हर रात को "कुण्डी मत खड़कावो राजा सीधा अंदर आवो राजा" जैसी आध्यात्मिक गीत पर एक भाव नृत्य जरूर पेश होता है..." ।
ये अलग बात है कि अगली सुबह मकान मालिक कुण्डी बजाकर पंचम स्वर में अपना मासिक भाषण पढ़ता है... "किराया कब दोंगे आज 28 हो गया... 22 को ही डेट पूरा होता है...देखो बाबू भाड़ा समय से देना हो तो रहो... वरना कमरा खाली करो..ये धर्मशाला नही है "
ओह तब ये लड़के गिड़गिड़ासन की मुद्रा में आ जातें हैं..और चेहरे पर मासूमियत का क्रीम पोतकर कहतें हैं कि "अंकल वो पापा थोड़ा धान में पानी चला रहें हैं" एक दो दिन और रुक जाइए...
हाय..उन्हें इसका दुःख नहीं की उनके पापा डाक्टर इंजीनयर क्यों न हुए ?वो जानतें हैं कि उनके बाप ने पत्थर का करेजा करके ही उन्हें शहर में पढ़ने के लिए भेजा है...
वो रोज गाँव फोन करके अपने किसान पिता को दिलासा देतें है कि "प्रणाम पापा सब ठीक है....आज चार घण्टा पढ़े है पापा जी...और तैयारी भी अच्छी चल रही है.."
ये सुनकर उनके किसान पिता के थके और बुझे चेहरे पर एक उम्मीद की लौ जलती है..वो माँ को फोन थमातें हैं।
और माँ सबसे पहला यही प्रश्न करती है...."कुछ खाये हो बेटा.? और बेटा रोवाँ गिरकार कह देता है कि "पैसा सब खत्म हो गया है मम्मी..मकान मालिक चिल्ला रहा था...मैथ वाले सर भी मांग रहे थे"
और माँ उधर से आंशू पोछते हुए कह देती है "बेटा पढ़ने पर ध्यान देना जल्दी पापा को भेजूंगी...तुम्हारे लिए पुआ छानकर आम का अँचार भी भेजूंगी.....अच्छे से टाइम से खाना "
वो हतास होकर फोन रखते ही हैं तब तक कोई फ़ोन करता है "अबे हॉस्पिटल आ जावो.....पंकज की मम्मी को खून देना है।
सब दौड़कर खून देतें है ...मानो अपनी माँ हो।
पंकज को रोज माँ की गाली देतें हैं...रोज झगड़ा करतें हैं...पर कन्धे पर हाथ रखकर कहतें है ...."अबे उदास मत होना भाई मम्मी को कुछ न होगा..हम लोग हैं न"
ये मिडिल क्लास के लड़के हैं....भले जमाने की नज़र में आवारा और संवेदनहीन लेकिन लेकिन जब हर साल हास्टल और कमरा खाली करतें हैं..तो एक बार गले लगकर रोतें हैं....
भले इनके पास ऐशो आराम के संसाधान नहीं हैं...इनके आँखों में पल रहे सपने बहुत बड़े नहीं हैं लेकिन दिल के कोने में एक बड़ा सा संवेदनशील आदमी जरूर रहता है।
अलग बात है कि जवानी की गर्मी सर चढ़कर बोल रही पर ये उतने बुरे भी नहीं जितना लोग समझतें हैं।
इनके सीने में भी दिल धड़कता है जिसे आँखों से नहीं दिल से ही देखा जा सकता है।
अतुल कुमार राय
28-10-15
बनारस।
हेलो अतुल जी,
ReplyDeleteमै भी हिंदी साहित्य पढ़ने का बहुत शौक़ीन रहा हू अपने शुरुआती समय में | इंजीनियरिंग के बाद इतनी व्यस्तता रही की समय नहीं दे पाया | आज भले ही इंग्लिश जुबान पे होती है ज्यादातर समय पर हिंदी की कमी मुझे हमेशा से महसूस होती रही है | काफी वक़्त से कुछ अच्छा पढ़ा नहीं था | आपका ये ब्लॉग बस अनजाने में ही हाथ लग गया | यू कहिये की दिल प्रसन्न हो गया | कुछ है आपकी लेखनी में असरदार | विरले ही मिलता है आजकल ऐसा कुछ | जारी रखिये आशा है आप बहुत आगे जायेंगे |