Tuesday 15 September 2015

ये तो प्रेम की बात है...

कल ड्यूडनी अपने ड्यूड से बहुते नाराज थी...मने की फुलौरी जइसा मुंह बनाकर कह दिया की " एकदम पेयार नहीं करते हो न मुझसे.?.दिन भर खाली फेसबुक पर ऑनलाइन रहोगे..बगल वाली पिंकिया के डीपी पर अइसा कमेंट करोगे मानों इन्नर के परी देख लिये हो...उसका मुंह देखे हो...लगता है जैसे सुखी हुई जलेबी रखकर कोई भूल गया है...मने  इ चिंता नहीं न की मेरा तीन दिन से नेट पैक खत्म हो गया है..."
बेचारे ड्यूड सकपकाया.. एक मिनट में प्रेम फफाने लगा.दिल से आवाज आई."इ क्या हो गया" ...बस प्यार की कसम खाने वाली परम्परा का निर्वाह करते हुए उसने मुहम्मद रफ़ी को याद किया और परम  रोमांटिकासन में  ड्यूडनी का हाथ पकड़ के गा  दिया. ..
"देखो रूठा न करो... बात नज़रों की सुनों"....
ड्यूडनी मन ही मन मुस्कराई...ड्यूड ने कहा..."तनी आजकल पइसा रुपिया नहीं है न डार्लिंग..समझा करो..पापा भेजेंगे तो तुरन्त रिचार्ज करवाएंगे...तनी धान में आजकल पानी चला रहे हैं..."
तब ड्यूडनी जोर से हंसी और कन्धे पर सर रखकर कह दिया.. "पइसा नहीं था तो काहें पेयार किये थे..जावो तुम भी धान रोपो.?."
बेचारा ड्यूड सर झुकाकर देर तक खड़ा रहा....
लौंडे को लगा कि काश बैंक वाले प्यार करने के लिये थोड़ा लोन देते... कम से कम गर्लफ्रेंड का हई ताना तो न सुनना पड़ता न?....लेकिन इहाँ तो सरवा जन धन योजना में भी खाता नहीं है...."
अरे मोदी चचा अब प्रेमियों का वर्ग निर्धारण करें और आर्थिक रूप से अशक्त प्रेमियों के लिए सालाना बजट में कोई व्यवस्था करें...कम से कम दिल टूटने पर बीमा की व्यवस्था भी तो हो...वरना ये दिल के मरीजों का क्या होगा भगवान....
खैर कल हमारी ललन बो भौजी भी भइया से अइसा नाराज हुईं की मान ही नहीं रहीं थीं..कह रहीं थीं की "ए "बबुआ के बाबूजी दीवाली बाद अरब नहीं जायेंगे."?..अकेले दिया जलाने का मन नहीं करता है हमारा....
बाकी बबुआ के बाबूजी तो नोट छापने के चक्कर में त्यौहार परब सब भुला गये हैं...चले गए बेचारे.. दिनार आ रियाल के चक्कर में..
भौजी देर तक रोइ आ गाना गाई...
"करब केकरा संगे परब सइयां अरब गइले ना"
लेकिन अब भौजी को कौन मनाये....देर तक उदास रहीं...बड़ा दुःख हुआ..
अरे आप रूठ जाएँ और कोई मनाने वाला न हो...कोई खोज खबर और आपकी चिंता करने वाला न हो तो जीवन में अन्हरिया उग जाता है....मन करता है जियत जिनिगी में सधुआ जाएँ।
आ थोड़ा सा रूठे की कोई हथवा पकड़ कर कहे की..."चलिए खा लिजिये न..गरम परवठा बनाएं हैं...ए जी आप नहीं खाएंगे तो हमू नहीं खाएंगे..तो मन करता है पनरह दिन अउर रूठे रहें.....
मुझे कई बार लगता है कि रुठने मनाने वाली रस्म शुरू करने वाले लोग बड़े मनोवैज्ञानिक किस्म के रहे होंगे..इसी रस्म से पता तो चलता है कि कोई कितना चाहता है हमें....
उन बड़े बुजुर्गों को एहसास  हो गया होगा कि आदमी को सिर्फ और सिर्फ प्रेम की जरूरत है..इसके बिना प्राण अधुरें हैं ..आत्मा प्यासी है...आदमी जीते जी मरे के समान है....लाख सुख सुविधा रहे लेकिन प्रेम को बताया न गया या जताया न गया तो वो कुंठित हो जाएगा..
शरीर का ही ख्याल रखा जाए और आत्मा को भूला दिया जाए तो आदमी रुग्ण हो जायेगा..
और आज ड्यूडनी और ललन बो भौजी ही नहीं..लगभग हर आदमी सबसे ज्यादा इसी के चलते रुग्ण है...कुछ दिन पहले फेसबुक खोला तो देखा एक जन ने ये स्टेटस लिख दिया है कि..."अब मैं फेसबुक से जा रहा हूँ...शायद कभी न आऊँ"...मैं हंसा और सोचा आदमी कितना मूर्ख है...किसी के रहने न रहने से फेसबुक न रुकेगा न ये दुनिया रुकेगी.....कौन समझाये इनको।
फिर भी इनबॉक्स में जाकर कही दिया.."क्यों जा रहे भाई..आपके बिना यहाँ अच्छा नहीं लगेगा..."
उन्हें सुनकर तसल्ली हो गयी...मैं जानता था की वो बस यही सुनना चाहतें हैं..उनको एहसास कराना जरूरी था कि हम सब उनका कितना ख्याल रखते हैं... वो स्टेटस डिलीट किये और अभी भी ऑनलाइन हैं.....
क्या कहें...इस छोटी सी उमर में बहुत अनुभव हुए लेकिन सबसे सुखद अनुभव यही रहा की प्रेम निःस्वार्थ देना बड़ा जरूरी है।...अपने आस पास बड़ी बीमार लोग हैं...और ये चीज ही ऐसी है की देने से लौटकर दूना हो जाती है.. लेकिन कलेजा बड़ा करना पड़ेगा...मांगना छोड़ना पड़ेगा। उम्मीदों को दफन करना पड़ेगा।।
कभी ओशो ने कहा था. कि "मनुष्य की सबसे बड़ी जरूरत है कि उसकी किसी को जरूरत हो"....
ये बात बड़ी ही अद्भुत लगती है मुझे...
लेकिन आज कल तो लोग मांग रहे हैं भिखारी की तरह..सबको अपनी अपनी पड़ी है...अपने में सब परेशान हैं...किसी को क्या चिंता या फिक्र कि  कौन किस हालत में है..ललन बो भौजी रूठें या ड्यूडनी रोती रहे उनकी बला से।
फिर भी कुछ लोग हैं हमारे आस पास जो चिंता करते हैं...हैरान होते हैं परेशान होते हैं पूछते हैं..आपसे उनको कोई उम्मीद नही है..निः स्वार्थ प्रेम कर रहे हैं....और सच पूछिये तो ऐसे लोग बड़े दुर्लभ जीव हैं...एकदम संजो के रखने लायक. हम सबके जीवन में कहीं न कहीं ।..एकदम बुद्ध की तरह..
बुद्ध के जीवन की एक कथा है.. तब बुद्ध ठीक से बुद्ध न हुए थे...कोई जानता न था...आत्म क्रान्ति शुरू न हुई थी...कहीं खुद से मिलना बाकी रह गया था...साधना की शुरुवात में उन्होंने हठ योग का सहारा लिया . शरीर कमजोर पड़ गया...उन्हें लगा कि शरीर को कष्ट देकर आत्मा कभी पुष्ट नही हो सकती..चेतना के शिखर को नहीं छुआ जा सकता..कहतें हैं तब बुद्ध पहाड़ों से नीचे उतरे और गया के निकट उरुबेला गाँव के समीप नैरंजना नदी के किनारे अपना डेरा जमाया..
तब पहली बार एक स्वास्ति नामक ग्यारह वर्षीय दलित जाति के चरवाहे ने उन्हें देख लिया था...इतना दिव्य स्वरूप उसने कभी न देखा था..बुद्ध उसे देखते हैं और मुस्करा देते हैं...स्वास्ति पीछे हट जाता है.आश्चर्य में पड़ जाता है..ऐसा कैसे हो सकता है.उसके माँ बाप न रहे...गाँव में कोई प्रेम से बोलता तक नही है... और एक दिव्य पुरुष उस ग्यारह साल के नाचीज को ऐसे देख रहा मानों ईश्वर को देख रहा हो... स्वास्ति घबराया..उसे लगा दूर चला जाऊं...वरना कहीं गलती से छू गया तो मार पड़ेगी...बुद्ध आगे  बढ़े और उसके सर पे हाथ रखकर कहा....."यहीं रहते हो..नाम क्या है?."
कहतें हैं तब स्वास्ति के आंशू रुकने का नाम नही ले रहे  थे..पहली बार किसी ने इतना प्रेम से बोला था.इतना स्नेह बरसा दिया था की शब्द न थे उसके पास...  वो चरणो में झुक गया और गिरकर कहा की मैं कुछ देना चाहता हूँ आपको... बुद्ध मुस्करा के रह गए...कौन समझाये इस बच्चे को...अरे जो राजमहल छोड़कर आ गया उसे क्या चाहिए...
लेकिन आगे कथा आती है...स्वास्ति ने जंगल से कुश की घास को काटा..और उसकी चटाई बनाई जिस पर बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई..
आगे चलके स्वास्ति बुद्ध के प्रखर शिष्यों में से एक बना...ये कथा मुझे आनंदित करती है..सोचने पर मजबूर भी...बुद्ध और कर भी क्या सकते हैं सिवाय प्रेम के...
आज आदमी की चेतना इतना नीचे चली गयी है कि उसे पता ही नहीं की सामने वाला क्या चाहता है उसे खबर ही नहीं..... ड्यूडनी नाराज हों या भौजी सबको अपनी अपनी चिंता है..
और शायद बड़ा वक्त लगेगा आदमी को जानने में कि लेने से ज्यादा देने में सुख है और खाने से ज्यादा खिलाने में..
किसी रूठे को मनाने  में...भूले को राह दिखाने में...अजनबी को अपनाने में। 

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