Monday 24 August 2015

'मांझी'..असली ताजमहल की सच्ची दास्ताँ

"एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!"
साहिर की ये प्रसिद्ध नज़्म पढ़कर ताजमहल जाने का ख़्वाब तोड़ चुके प्रेमियों के लिए 'दशरथ मांझी पथ' उनका मक्का मदीना हो सकता है...
गया में बुद्ध से मिलकर लौटने वाले लोगों को इस दूसरे बुद्ध रूपी गरीब शहंशाह से एक बार जरूर मिलना चाहिए...जिसने प्रेम की शक्ति से विशाल पहाड़ तोड़कर प्रेम का असली ताजमहल इसलिए बनाया है ताकि फिर किसी मांझी की फगुनिया पहाड़ से गिरकर जान से हाथ न धो बैठे।
उन्हें जाकर देखना ही नही चाहिये बल्कि उन पत्थरों में कान लगाकर फगुनिया के पायल की आवाज और मांझी के हथौड़े में चल रहे द्वन्द को महसूस करना चाहिए...उन्हें जानना चाहिए कि प्रेम की शक्ति किसी पहाड़ और चट्टान से भी बड़ी है...उम्मीदों का हथौड़ा बाधावों के पत्थर पर हमेशा भारी है. संकल्प की मजबूत छेनी से कुछ भी काटा जा सकता है.....भले 22 साल ही क्यों न लग जाएँ पर चट्टान से भी बड़े आत्मविश्वास "जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं...से चालीस मील की दूरी को चार मील में बदला जा सकता है......
देखा जा सकता है कि जमीदारीं और सामंतवाद घोर गरीबी,अभाव,लचारी से जूझने के  बाद भी दशरथ मांझी कैसे हुआ जा सकता है...वो मनुष्यता का सबसे विशुद्ध स्वरूप जिसका हौसला पहाड़ तो तोड़ सकता  है लेकिन किसी का दिल नहीं तोड़ सकता।......
कैसे जीते जी लीजेंड हुआ जा सकता है जिसको बार बार नमन करने का मन करता है।
कैसे मांझी अपने बाप द्वारा रेहन रखे जाने के डर से गाँव से भाग तो जाता है पर धनबाद कोल माइंस में नोकरी करने के बाद गाँव आता है तो कितना उदास हो जाता है ,जब सात साल बाद भी  गाँव को वहीं ज्यों का त्यों पाता है.....वो हैरान रह जाता है कि कुछ भी न बदला उसकी झोपडी,उसके बाबूजी,उसके भैया भौजी सब उसी हाल में जीने को आज भी अभिशप्त हैं.....वो छुआछूत मिटाने के सरकारी नारे महज जुमला साबित होते हैं जब उसे जाति विशेष के लोगों द्वारा औकात में रहने कि हिदायत दी जाती है.....
लेकिन सुखद ये होता है कि प्रेम नाम की फगुनिया को देखते ही जीने की एक मुकम्मल और ठोस वजह मिलती है... उदासी के तप रहे जेठ में प्रीत की सावनी फुहार का हुलास जीने का हौसला दे जाता है...बाद में मांझी को पता चलता है की वो उनकी पत्नी है...जिनसे बचपन में ब्याह हुआ था....फिर ताजमहल का डेमो रूपी गिफट लेकर फगुनिया के घर जाना और उसे भगाकर ले आना.....वजीरगंज के मेले में दस रुपया न होने के चलते एक पाँव की पायल ही ख़रीदना....और  "सइयाँ अरब गइले ना" पर नाचना जैसी घटनाएं  हमे आंदोलित के साथ साथ आनंदित करती हैं.....
फिर जिजीविषा और वर्तमान में एक लम्बी लड़ाई के बीच कहीं मांझी की फगुनिया का पहाड़ से गिरकर दम तोड़ देना...... उसके बाद गरीबी लचारी और कठिन संघर्ष की सच्ची साझेदार को खोकर इतिहास रचने वाला एक दशरथ मांझी कैसे माउंटेन मैन हो जाता है.... जानकर नमन करने योग्य है।
की फगुनिया के मरने के बाद  उस प्रेम के दुश्मन पहाड़ के आगे मांझी अपने संकल्प की चट्टान खड़ी करते हैं ...वो पहाड़ के साथ साथ...भूख प्यास,उपहास,अकाल तूफ़ान,आंधी,विरोध नाम के पहाड़ को भी तोड़ देते हैं....क्योंकि बार बार फगुनिया आकर प्रेरक शक्ति दे जाती है...और बार बार थकने के बाद  कान में कह जाती है...."क्यों थक गए ?..
मांझी टूटकर जुटतें है...उठ खड़ा होतें हैं...अब उन्हें इंदिरा गांधी के "गरीबी मिटावो" नाम के नारे से न चिढ होती है....न ही उनके नाम पर बिडिओ और मुखिया का 25 लाख लूटा जाना खलता है....न उन्हें पैदल दिल्ली जाकर बेरंग वापस आने का दुःख सालता है...
उनके हौसले से प्रेम का सबसे उदात्त स्वरूप अपने चर्मोत्कर्ष पर हो जाता  है जब 22 साल बाद मांझी के साथ साथ पूरा गाँव जवार जान जाता है कि  अब किसी फगुनिया के साथ ऐसा कभी न होगा...और मांझी अमर हो जातें है।
लेकिन अफ़सोस की आज अधिकतर लोग मरने के आठ साल बाद इस माटी के लाल दशरथ मांझी को फ़िल्म के माध्यम से जान पा रहे हैं...
दोष किसका है...क्या कहें
यहाँ   फ़िल्म की तो अपनी व्यवसायिक मजबूरियां हैं..उन्हें कंटेट और कामर्शियल जैसे शब्दों से बार बार खेलना है....ग्रैंड मस्ती और चेन्नई एक्सप्रेस के दर्शक को भी ध्यान में रखना है.....और हैदर और हाइवे वालों को भी।
इसी खेलने और ध्यान रखने के चक्कर में केतन मेहता कई बार उलझते नज़र आते हैं..
लेकिन नवाज जैसी प्रतिभा की फैक्ट्री,राधिका आप्टे जैसी मासूमियत और मादकता का अद्भुत मिश्रण... बेहतरीन संवाद आदयगी करने वाले तिग्मांशू धूलिया,पंकज त्रिपाठी और प्रशांत नारायण उन्हें बार बार सम्भालतें हैं.....
केतन मेहता ही नहीं आज हिंदी सिनेमा में बायोपिक बनाने वाले हर फिल्मकार  के साथ यही समस्या है...वो कहीं न कहीं उस व्यक्तित्व के साथ अन्याय कर बैठतें है...मंगल पांडे..और रंगरसिया में राजारवि वर्मा के बाद केतन मेहता तीसरी बार  मांझी को दिखाने में कई बार चूकते हैं....वो उस निश्छल और निर्दोष प्रेम की रूहानियत को न दिखाकर जिस्मानी प्रेम दिखा बैठतें हैं।.....
उनकी मजबूरी समझ में आती है कि
कई बार न ठीक से मांझी को उतार पाते हैं न बिहार और गया की आत्मा उसकी बोली भाषा तहजीब को....
संगीत में भी सन्देश  शांडिल्य कुछ ख़ास नहीं कर पाते ..जबकि बिहार की माटी में कदम कदम पर आत्मा के तार हिलाने वाले गीत हैं....उनको शामिल करते ही फ़िल्म का मेयार ऊँचा हो जाता है....लेकिन .'गहलौर की गोरिया' छोड़कर कोई गीत प्रभावित नहीं कर पाता।........बस केतन मेहता का एक ही मजबूत पक्ष सारी कमियों को ढंकने में जरूर कामयाब हो जाता है.....वो है  रियल लोकेशन में शूटिंग।
लेकिन कमीयां तो हर जगह रह जातीं है..
और कमियां निकालना सबसे आसान काम भी है।
बस हमारे समय के असली हीरो जिसने 22 साल न सही 12 साल में संघर्षों का ऊंचा पहाड़ तोड़कर आज वो मुकाम बनाया  है कि पूरी फ़िल्म   में उसके लिए एक ही शब्द निकलता है....
"शानदार नवाज़...जबरदस्त नवाज़...जिंदाबाद नवाज़..."
मैं  नवाज को इस शानदार अभिनय के लिये सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार पाते हुए देखना चाहता हूँ।
हाँ भारतीय सिनेमा बदल रहा है ये कहना जल्दबाजी होगी...लेकिन दर्शकों का मिजाज बजरँगी भाई जान और चेन्नई एक्सप्रेस ग्रैंड मस्ती से ऊपर नहीं उठ पा रहा ये चिंता का विषय है....वो दो सौ रुपया में  इमोशन से  लेकर रोमांस और सेक्स तक देखना चाहता है...ये दर्शक वर्ग कब  तक सिर्फ मनोरंजन के नाम पर कूड़ा कचरा देखता रहेगा...कब तक 'द लंचबाक्स,मसान और मांझी जैसी फिल्में बजरँगी भाई जान के आगे दम तोड़ती रहेंगी ये सोचनीय है।।
इसके बावजूद मांझी द माउंटेन मैन एक बार सबके साथ देखने लायक फ़िल्म है....इसके लिए कि हम जाने की असली हीरो पदमश्री पद्मविभूषण या भारत रत्न जैसे लोग ही नहीं होते वो...वो एक दलित समुदाय से आने वाला गरीब और लाचार धुन का पक्का दशरथ मांझी भी हो सकतें हैं.।
हम तहकीकात करेंगे तो जरूर आज भी कहीं न कहीं कोई दशरथ मांझी पहाड़ तोड़ रहे होंगे। हमारे आस पास ही...बस जरा हमें आलोक झा बनने की देर है।।
आज बहुत दिन बाद किसी फ़िल्म पर कुछ कहने का मन हुआ है...
आप सब एक बार जरूर जाएं देखने जाएँ।
मैं उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार को धन्यवाद देता हूँ जिसने इसे टेक्स फ्री किया है...और उन बुद्धिजीवी पतियों को सलाह देता हूँ जो अपनी खूबसूरत फगुनिया के रहते हुए कहीं और उलझे हुये हैं....
की वो सपत्नीक जाएँ और इस अद्भुत प्रेम कथा को देखने के बाद भले अपनी फगुनिया के लिए पहाड़ न तोड़ें पर पत्नी के लिए प्रेम और समर्पण का पहाड़ जरूर खड़ा करें।
अतुल कुमार राय।
24-8-15

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