लाख हनी सिंह का दौर हो पर गाँव में रहने
वाला लौंडा आज भी दिल टूटने पर 'ब्रेक अप की पार्टी रख ली' नहीं सुनता ।..
आज भी अल्ताफ राजा उसके महबूब गायक
हैं..गाँव के बाहर पुल पर बैठे..
'जा बेवफा जा तुझे प्यार नहीं करना'
बजाता है....उसकी आशिकी 1 से 2 नहीं होती
कि वो 'तू
मेरी जिन्दगी है' छोड़कर 'सुन
रहा है न तू ' सुनें......
वो हमेशा आशिकी रहती है.....
उसके दिल पर लगी जख्म जब
भी हरीयर
होती है ...वो अपने चाइनीज मोबाइल का फूल वाल्यूम फूल कर...पैर के साथ मुंह लटकाए 'एक बेवफा के जख्मों पर मरहम लगाने हम गये ,मरहम की कसम.......बजाता है..और तब
तक सुनता है ..जब तक
कि उसकी मासूक एक बार ससुराल
रूपी ग्रेटर नोएडा से लौटकर न आ जाए...और
किसी दिन इनार प मिलकर कहे......."अले ले
ले बाबू ये देको देको कोन है"......"नमस्ते कलो...
कलो बेटा.... ये खेदन मामू हैं "
अब क्या .....बेचारा मुंह बनाकर पूछ्ता है....हमार त याद अब ना आवत होई....का हो पुष्पा?
फिर तो पुष्पा भी पल्लू सीधा कर पूछ ही देती है..काहें दुबरा गइल बाड़ा?
आगे क्या कहूँ इसको महसूस करने के लिए कलेजा चाहिए . सोचता हूँ गाँव में रहने वाले आशिक कितने सीधे साधे हैं न...?
आज भी....
शहरों के आशिक ऐसा करतें हैं क्या? आज तो वो पुष्पा के साथ रिंकी चिंकी और नेहा पर भी डोरे डालते हैं...एक से जी उब गया की दूसरी आयी नहीं की तीसरी से शुरू..उनका सारा लव हनी सिंह के रैप की स्पीड से मुकाबला करता है
पर गाँव में रहने वाले आशिकों ने आज भी थोडा सा कमिटमेंट बचा के रखा है..
भले वो बलिया के किसी गाँव में बैठकर बनारस की कल्पना होनूलूलू की तरह करतें हों तो क्या है.....
भले उनका फेसबुक व्हाट्स अप और लाइन वाइबर पर अकाउंट नहीं है तो क्या है...
उनके रिश्ते किसी लाइक और कमेन्ट और चैट की दुनिया से बहुत उपर हैं।
भले वो एंड्रायड विंडो और आईओएस के दौर में जावा और सिम्बियन पर टिकें हैं तो क्या है...उन्होंने आज भी चिट्ठी वाली आत्मीयता से रिश्तों की सदाकत को बचा के रखा है...
भले उन्होंने गर्लफ्रेंड को मैकडोनाल्ड की कुर्सी पर बैठे प्रपोज न कर गाँव के मेले में जलेबी की दुकान पर किया हो....
पर उनकी रिश्ते की मिठास किसी भी महंगी मिठाई को फींकी कर सकती है....
लेकिन हम कभी गाँव जाते हैं तो इनको देखकर लगता है .ये लोग अभी कितने पिछड़े हैं..और अपने विकसित होने पर मुग्ध होतें हैं..सोचतें हैं..ये क्या जाने मैकडोनाल्ड में पिज्जा खाते हुए फेसबुक पर फोटो शेयर करने का आनंद.....
और व्हाट्स अप के साथ साथ लाइन वाइबर वी चैट ,स्काइप चलाने का आनंद...
किसी वातानुकूलित थियेटर में कोल्ड्रिंक को स्ट्रा से खींचते हुए रोमांटिक फिल्म देखने का आनंद...
पर कुछ भी हो जाय उन्होंने ये सब न जानकर उस चीज को जरुर जान लिया है....जिसको जाने बिना कुछ भी जानना बेकार है...
वो है 'आत्मीयता और संवेदना....जिसे आज की हमारी युवा पीढ़ी आधुनिकता की अंधी दौड़ में धीरे धीरे खोती जा रही है..
और मजे की बात ये भी है की हम इसे समझ भी नहीं पा रहें...रिश्तों में आई नैतिक गिरावट का सारा दोष समय और समाज में फैली गड़बड़ी पर थोपकर हम अपनी जिम्मेदारी से तो मुक्त हो लेतें हैं...पर ये नहीं सोचते की थोड़ा सा जागरूक होकर हम आज भी 'आदमीयत को बचाए रख सकतें हैं।
अब एक दिन क्या हुआ कि एक मित्र के दरवाजे पर बैठा था...बातचीत जारी थी..अचानक उन्होंने मोबाइल की तरफ ध्यान से देखा और सर उठाकर कहा 'अतुल अब खाना खा लिया जाय" ..हमने कहा भाई बड़ा जल्दी भाभी जी ने खाना तैयार कर दिया....उन्होंने मोबाइल रखते हुए कहा
"हाँ अभी व्हाट्स अप पर मैसेज किया है आकर खा लो वरना हमारे सीरियल का टाइम हो रहा है
हमने कपार पीट लिया....सोच रहा था कितना अच्छा होता न की भाभी जी एक बार दरवाजे पर आकर धीरे से कह जातीं की 'सुनतें हैं जी आकर खा लीजिये न..' तो कसम से आधी भूख तो वैसे ही मीट जाती है...
पर उनका दोस नहीं...आज सारे रिश्ते टेक्नोलाजी के तार से बंधें हैं...नेह की डोर कहीं टूट सी गयी है....
हम दिन पर दिन आधुनिक और सुख सुविधा सम्पन्न होते जा रहें हैं. लेकिन ये कतई नहीं भूलना चाहिए की हम साथ साथ हम बहुत कुछ खोते भी जा रहें हैं....
बेशक समय के साथ कदम ताल मिलाना जरूरी है..पर थोड़ी सी गाँव का माटी वाली फिलिंग को बचाकर रखना भी जरूरी है....वरना आदमी से पत्थर होते देर न लगेगी।
आसमान को छूना भी जरूरी है..पर पैर को जमीन पर रखकर ,वरना हवा में लटकते देर न लगेगी......
......अतुल कुमार राय।
वाला लौंडा आज भी दिल टूटने पर 'ब्रेक अप की पार्टी रख ली' नहीं सुनता ।..
आज भी अल्ताफ राजा उसके महबूब गायक
हैं..गाँव के बाहर पुल पर बैठे..
'जा बेवफा जा तुझे प्यार नहीं करना'
बजाता है....उसकी आशिकी 1 से 2 नहीं होती
कि वो 'तू
मेरी जिन्दगी है' छोड़कर 'सुन
रहा है न तू ' सुनें......
वो हमेशा आशिकी रहती है.....
उसके दिल पर लगी जख्म जब
भी हरीयर
होती है ...वो अपने चाइनीज मोबाइल का फूल वाल्यूम फूल कर...पैर के साथ मुंह लटकाए 'एक बेवफा के जख्मों पर मरहम लगाने हम गये ,मरहम की कसम.......बजाता है..और तब
तक सुनता है ..जब तक
कि उसकी मासूक एक बार ससुराल
रूपी ग्रेटर नोएडा से लौटकर न आ जाए...और
किसी दिन इनार प मिलकर कहे......."अले ले
ले बाबू ये देको देको कोन है"......"नमस्ते कलो...
कलो बेटा.... ये खेदन मामू हैं "
अब क्या .....बेचारा मुंह बनाकर पूछ्ता है....हमार त याद अब ना आवत होई....का हो पुष्पा?
फिर तो पुष्पा भी पल्लू सीधा कर पूछ ही देती है..काहें दुबरा गइल बाड़ा?
आगे क्या कहूँ इसको महसूस करने के लिए कलेजा चाहिए . सोचता हूँ गाँव में रहने वाले आशिक कितने सीधे साधे हैं न...?
आज भी....
शहरों के आशिक ऐसा करतें हैं क्या? आज तो वो पुष्पा के साथ रिंकी चिंकी और नेहा पर भी डोरे डालते हैं...एक से जी उब गया की दूसरी आयी नहीं की तीसरी से शुरू..उनका सारा लव हनी सिंह के रैप की स्पीड से मुकाबला करता है
पर गाँव में रहने वाले आशिकों ने आज भी थोडा सा कमिटमेंट बचा के रखा है..
भले वो बलिया के किसी गाँव में बैठकर बनारस की कल्पना होनूलूलू की तरह करतें हों तो क्या है.....
भले उनका फेसबुक व्हाट्स अप और लाइन वाइबर पर अकाउंट नहीं है तो क्या है...
उनके रिश्ते किसी लाइक और कमेन्ट और चैट की दुनिया से बहुत उपर हैं।
भले वो एंड्रायड विंडो और आईओएस के दौर में जावा और सिम्बियन पर टिकें हैं तो क्या है...उन्होंने आज भी चिट्ठी वाली आत्मीयता से रिश्तों की सदाकत को बचा के रखा है...
भले उन्होंने गर्लफ्रेंड को मैकडोनाल्ड की कुर्सी पर बैठे प्रपोज न कर गाँव के मेले में जलेबी की दुकान पर किया हो....
पर उनकी रिश्ते की मिठास किसी भी महंगी मिठाई को फींकी कर सकती है....
लेकिन हम कभी गाँव जाते हैं तो इनको देखकर लगता है .ये लोग अभी कितने पिछड़े हैं..और अपने विकसित होने पर मुग्ध होतें हैं..सोचतें हैं..ये क्या जाने मैकडोनाल्ड में पिज्जा खाते हुए फेसबुक पर फोटो शेयर करने का आनंद.....
और व्हाट्स अप के साथ साथ लाइन वाइबर वी चैट ,स्काइप चलाने का आनंद...
किसी वातानुकूलित थियेटर में कोल्ड्रिंक को स्ट्रा से खींचते हुए रोमांटिक फिल्म देखने का आनंद...
पर कुछ भी हो जाय उन्होंने ये सब न जानकर उस चीज को जरुर जान लिया है....जिसको जाने बिना कुछ भी जानना बेकार है...
वो है 'आत्मीयता और संवेदना....जिसे आज की हमारी युवा पीढ़ी आधुनिकता की अंधी दौड़ में धीरे धीरे खोती जा रही है..
और मजे की बात ये भी है की हम इसे समझ भी नहीं पा रहें...रिश्तों में आई नैतिक गिरावट का सारा दोष समय और समाज में फैली गड़बड़ी पर थोपकर हम अपनी जिम्मेदारी से तो मुक्त हो लेतें हैं...पर ये नहीं सोचते की थोड़ा सा जागरूक होकर हम आज भी 'आदमीयत को बचाए रख सकतें हैं।
अब एक दिन क्या हुआ कि एक मित्र के दरवाजे पर बैठा था...बातचीत जारी थी..अचानक उन्होंने मोबाइल की तरफ ध्यान से देखा और सर उठाकर कहा 'अतुल अब खाना खा लिया जाय" ..हमने कहा भाई बड़ा जल्दी भाभी जी ने खाना तैयार कर दिया....उन्होंने मोबाइल रखते हुए कहा
"हाँ अभी व्हाट्स अप पर मैसेज किया है आकर खा लो वरना हमारे सीरियल का टाइम हो रहा है
हमने कपार पीट लिया....सोच रहा था कितना अच्छा होता न की भाभी जी एक बार दरवाजे पर आकर धीरे से कह जातीं की 'सुनतें हैं जी आकर खा लीजिये न..' तो कसम से आधी भूख तो वैसे ही मीट जाती है...
पर उनका दोस नहीं...आज सारे रिश्ते टेक्नोलाजी के तार से बंधें हैं...नेह की डोर कहीं टूट सी गयी है....
हम दिन पर दिन आधुनिक और सुख सुविधा सम्पन्न होते जा रहें हैं. लेकिन ये कतई नहीं भूलना चाहिए की हम साथ साथ हम बहुत कुछ खोते भी जा रहें हैं....
बेशक समय के साथ कदम ताल मिलाना जरूरी है..पर थोड़ी सी गाँव का माटी वाली फिलिंग को बचाकर रखना भी जरूरी है....वरना आदमी से पत्थर होते देर न लगेगी।
आसमान को छूना भी जरूरी है..पर पैर को जमीन पर रखकर ,वरना हवा में लटकते देर न लगेगी......
......अतुल कुमार राय।
takneek badh rahi hai, ghat rahi hai samvedna...kamaal likhte ho atul babu....hazar like..!
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद श्रुति जी...... :)
ReplyDeleteबहुत ख़ूब और यथार्त
ReplyDeleteक्या लिखा है सर!!!!!!
ReplyDeleteबहुत खूब
क्या लिखा है सर!!!!!!
ReplyDeleteबहुत खूब
वाह अतुल जी वाह।
ReplyDeleteकलम के जादूगर है आप।
वाह अतुल जी वाह।
ReplyDeleteकलम के जादूगर है आप।
एकदम सही लिखे है भइया ये आधुनिकता ओर ये टेक्नोलॉजी सबकुछ खत्म कर के अकेलापन बड़ा रहा है बहुत जहां सभी लोग सबसे जुड़े हुए होकर भी अकेले है ।
ReplyDelete