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Wednesday, 22 July 2015

आसरा के रोपनी........

अभी पर साल तो बैसाख में  भौजी गवना करा के आई...आ चार दिन बादे गेंहू के कटिया शुरू हो गया...ककन छूटे दू दिन हुआ था आ मेहँदी अभी छूटा नहीं था....तले खेत में.... हाय रे किसानी....मजबूरी भी तो थी..करेंगे नहीं तो खाएंगे का?.. जोखन उस दिन मेहरारू को देखकर खूब तेज  गाना गाये थे......
"जइसन खोजले रहनी ओइसन धनिया मोर बाड़ी....सांवर ना गोर बाड़ी हो......
भौजी लजाकर घूंघट काढ़  धीरे से कही थी... "भक्क".......
दूसरे दिन असहाय नज़रों से भौजी जोखन  के तरफ देखकर गाना गाई थी..तब उन नाजूक हाथों से बोझा नहीं उठ रहा था...बैसाख के पसीना से सिंदूर भीगकर काजल से मिल गया था...
'नइहर के दुलरुई हईं बाड़ा सुकुवार ए पीया..
कंटिया ना होइ हमसे राखा बनिहार ए पीया'..
हाय.......सुनते ही जोखन के करेजा से परेम फफाने लगा था..
."अरे हमार मेहरारू...."..जोखन बोझा अपने कपार प ले लिए..'छोड़ द आराम करा हम बानी न".....सब देख के हंसते......"जोखना  अपने मेहरारू को केतना मानता है".. उस दिन रमेसर बो चाची जोखन के  माई से खेते में कह दी....."इहे सीरी देवी आईल बाड़ी?...ना बोझा ढ़ोये के लूर ना गेंहू काटे के सहूर..
नन्हकू को संगी साथी भी चिढ़ाते..."एकदम निरहू हो गइल बा बियाह के बाद..." जइसे तइसे दँवरी खतम हुआ...
नन्हकू दँवरी करा अनाज भूसा रख के पइसा कमाने नवेडा गए तो भौजी खूब रोइ...तीज बीत गया..रक्षाबन्धन...दिवाली आ दुर्गा पूजा में  जोखन नहीं आये...भौजी को गुरही जिलेबी थोड़ा भी नीक नहीं लगा...छठ में भी आस देके जोखन नहीं आये...होली में दूध से नहीं भौजी ने आँखि के लोर से सानकर पुआ बनाया ...आ रोइ रोइ  फोन पर कहा...."आग लागो तहरा रुपिया कमइला के..अइसन कमाई के कवन काम ?जब बरीस बरीस के दिन आँखि के सोझा संवाग ना रहे..." जोखन जइसे तइसे मेहरारू को समझाये...."मान जा हमार करेजा... रोपनी के समय आयंगे मंगटिका बनवायेंगे......बनारसी साड़ी खरीदेँगे..... आ शीशमहल में निरहुआ वाला फिलिमो दिखाएँगे" भौजी मान गयी।
अब उहे दंवरी के गए नन्हकू एक्के बेर रोपनी में आ रहें हैं... रोपनी चालू है....दिन भर के रोपनी से लस लस शरीर हो जा रहा......गार्नियर और हेड एन्ड शोल्डर जबाब दे रहे लटीआईल बाल साफ़ करने में...लक्स, पियर्स आ सर्फ एक्सल के वस के बस कि बात नहीं की जोखन बो भौजी आ  जोखन के देह पर लगी माटी को ठीक से साफ़ कर दे...ई सब महंगा सरफ साबुन शेम्पू तो ऐसी में रहने वालों के लिए बनें हैं... अरे ई किसान का शरीर है..एकदम देसी..माटी में पैदा हुआ माटी में बढ़ा और माटी  से सना...इसके लिये दू रुपिया वाला मालिक साबुन और पियरकी माटी ही सूट करता है..... धान रोपते कितना थक जाती है भौजी..
आह......पर बिया टूंगकर खेत में जब डालती है तब उसके चेहरे की चमक देखते बनती है..जोखन देखकर हंसते हैं......
अपनी ननद बबीतवा के  साथ रोपनी के गीत गाते हुए जब धान रोपती है तो लगता है  धान नहीं मानों सोना रोप रही हो..आँचर को कमर में खोस कर गाती है...
"ननदी भउजीया रे ऐके समउरिया
मिल जुली पनिया के जाली हो राम.....
ननदी के हाथवा में सोने के घड़िलवा
भौजी के हाथ रेशम डोर ए राम...
घोड़वा चढ़ल अइले राजा के लरिकवा
तनी मोर घइला अलगइते ए राम...."
ओह...लोक में गरीबी और अभाव ने किन किन कल्पनावों को जन्म दिया है...ये रोपनी,सोहनी कटाई के गीत सुनने के बाद ही पता चलता है....पता न किस सुर ताल के इंजीनियर ने इस आत्मा के गीत को कम्पोज किया है.....सुनने के बाद रोम रोम आनंद से नहा जाता है..अभाव में उपजी कल्पना कितनी मुग्ध करने वाली  है...सोने का घड़ा लेकर दो लड़कियां कुएं पर जाएँ...और राजा का लड़का थका प्यासा उनसे पानी मांगे.....ऐसा सम्भव है क्या?..शायद बहुत पहले ये पता चल गया था कि  कल्पना झूठ ही क्यों न हो...एक पल सच लगते ही आदमी कुछ देर वर्तमान के सुख दुख भूलकर जी जाता है.... यही कल्पना दिलासा और उम्मीद को सिरहाने रखकर ही तो एक किसान सोता है ,जागता  है.. शायद नन्हकू बो भौजी भी।
अब  भौजी का नया समाचार है..परेशान हैं कि जल्दी से रोपनी खतम हों तो आवे वाला नन्हका के बाबू नवेडा काम करने जाएँ....5% ब्याज पर कर्जा लेकर बियड़ लगाया है इस साल.... डाई यूरिया पोटास आ टेक्टर के लेव लगवाई...धान में कीड़े न लगें तो दवाई का छिड़काव करना होगा...बरखा बरसेगा की नहीं इहो ठीक नहीं..त मातादीन राय के टिबूल से पानी भी चलाना पड़ेगा... बबीतवा का बियाह करना है पर साल...कुछ कमायेंगे कुछ धान बेचेंगे...आगे के दुआर पर करकट लगाना है.... पइसा इकट्ठा करेंगे....धान बेचेंगे तो एक गाय खरीदेंगे..सबको आस है....कोई सोच लिया है की धान बेचेंगे तो घर बनवायेंगे...मड़ई छवायेंगे...जोखन बो भौजी कान में के बनवायेंगी....पेहेन के भाई के बियाह में नइहर जाएंगी..
कितने  अरमान सजाएं हैं धान रोपकर।
आसमान में बैठे भगवान की तरफ रोज नज़रें उठती हैं इस आस के साथ की हे भगवान "आप तो आसाढ़ से लेकर कात्तिक तक क्षीर सागर  सोने चले जातें हैं योग निद्रा में...बाकी बुनी बरखा नहीं हुआ त...किसान का सब अरमान पानी पानी हो जाएगा.."
उसके सारे सपने मर जाएंगे... ब्याज पर पैसा लेकर खेती करने वाला जोखन जैसा किसान एक निरीह की तरह जब आसमान की तरफ देखेगा आ पानी के जगह कुछ नहीं मिलेगा... उलटे मुआवजा  में 46 रुपया का चेक मिलेगा  तो आत्महत्या ही न करेगा...अरे किसान धान नही रोपता वो उम्मीदों को रोपता है....सपनों को सींचता है....पाश ने कहा न.....
"सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनो का मर जाना"..
धरती का करेजा भी फटता है जब उसका लाल आत्महत्या करता है.....ये  लाल कब तक कंगाल रहेगा?..अपने हाड़ मांस की कमाई से सबका पेट भरने वाला कब तक भूखा सोयेगा....? ऐसी में बैठकर कृषि नीति बनाने वाले कब खेतों  की तरफ रुख करेंगे.... किसानोँ की लाश पर राजनीति करने वाले कब उनके दर्द समझेंगे?
कब तक जोखन नवेडा से खेती कराने गाँव जाएगा...फिर गाँव से नवेडा  आएगा... काश खेती में इतना फायदा होता कि किसी जोखन को नोएडा और दिल्ली न जाना पड़ता.....भौजी होली दिवाली दशहरा खुश होकर मनाती....काश...... :-(
बस दुआ करिये...खूब अच्छी बारिष हो....देश का कोई किसान आत्महत्या न करे....

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