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Saturday, 15 February 2014

शब्द वीणा -रविन्द्र नाथ ठाकुर

यह शारदीय प्रभात आलोक के
अतिरेक से क्लांत है,यदि गीत तुम्हारे अस्थिर और मंद हो जाएँ तो एक छण मुझे अपनी वंशी देना। मै इससे केवल खेलूँगा मनमाना -कभी गोद में लूँगा कभी अपने अधरों से स्पर्श करूंगा,कभी घास पर इसे अपने पास में रखूँगा किन्तु संध्या की पवित्र निस्तब्धता में पुष्प एकत्र इसे सजाऊँगा,इसे सुगंध से भर दूंगा, दीप जला इसकी अर्चना करूंगा।
और रात लौटकर वंशी तुम्हें सौंप दूंगा तुम इस पर मध्यनिशा का संगीत छेड़ना। जब एकाकी अर्धचन्द्र तारकों के बिच भटक रहा होगा
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वह कौन सा संगीत है जो धरती को अपने पालनें में झुला गया ?जब यह जीवन के शीर्ष पर होता है तो हम प्रसन्न हो उठते है और जब अंधकार में विलीन हो जाता है तो हम भय से कांप उठते हैं
किन्तु अनंत संगीत की लय पर आने और जाने वाला यह कौतुक वही है। तुमने खजाना अपनी मुट्ठी में छुपा लिया और हम क्रन्दन कर उठे की हमारा सर्वस्व लुट गया। किन्तु तुम अपनी मुठी को बंद करो या खोलो हानि और लाभ एक सा ही रहेगा ।
जब तुम अपनी इच्छा से खेल खेलते हो तो एक साथ ही विजयी और पराजित हो जाते हो।।।
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मेरा जब ह्रदय मान बैठा था कि तुम कभी नही मिल सकोगे ,तब तुम मेरे अंतरतम में ही थे ,तुम अंत तक मेरे अनुराग और मेरी कामनावों के ओट रहे,क्योंकि तुम सदा उन्ही में विद्यमान थे ।तुम मेरे यौवन की कृणा के अन्यतम आनंद थे और जब मै कृणा रत था तभी वह आनंद विलीन हो गया ।
तुम मेरे जीवन के चरम आनंद से गीत गा रहे थे और मै तुम्हें गीत सुनाना भूल गया।
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तुम मेरे गीतों के प्रवाह से दूर सदा एकाकी खड़े रहते हो
मेरे गीतों के स्वर तुम्हारे चरण प्रक्छालित करते रहते है
किन्तु मै नही जनता उन चरणों तक कैसे पंहुचूं
तुम्हारे साथ यह मेरी कृणा दूर की कृणा हैं
यह विरह की पीड़ा है जो मेरे वंशी की धुन में घुल गई है। मै उस छण की प्रतीक्छा में हू जब तुम्हारी नाव इस पार मेरे तट आ लगेगी और तुम मेरी वंशी को स्वयं अपने हाथों में ले लोगे।।।।
(अहा जिन्दगी से साभार)

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