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Sunday, 29 November 2015

इश्क में बनारस होना

#इश्क_में_बनारस_होना

सुनों...
कल अपने बनारस आ गया...आते ही लगा लौट आया हूँ तुममें और तुम मुझ में..
गोदोलिया,जंगमबाड़ी और अगस्तकुण्ड ने बांहे फैला दीं थीं.बिल्कुल तुम्हारी तरह....मानों वर्षों बाद उसका महबूब घर लौट आया हो...
जानती हो लौटकर आने से बड़ा कोई सुख नहीं है पगली..बनारस से दूर होना तुमसे दूर होना है...
तुम भी तो यहाँ से दूर हो...लेकिन एक कल्पना ही सही.. इन गलियो में इन घाटों पर आज भी तुम मौजूद हो....रोज सुबह इनकी सीढियां, वो गंगा की लहरें, मन्दिर की घण्टियाँ और उस आध्यात्मिक शोर में भी तुमको महसूस करता हूँ ,जहाँ हम तुम कभी बैठे थे..
लहरों से बतियाते हुए कई बार बुद्ध याद आये कई बार तुलसी के दोहे...कई बार कबीर के निर्गुन..कई बार वो सिद्धेश्वरी देवी की वो ठुमरी..."बलम विदेस रहो....."
इधर कई बार एहसास हुआ कि  तुम्हारी आँखे दरभंगा घाट के उस पत्थर जैसी  हैं..जिस पर एक साधू दिन भर चन्दन घिसता है...कितनी चमक और दिव्यता आ गई है उस पत्थर में, तुम्हारी आँखों की तरह...कल आते ही एक रुपया देकर माथे पर लगाया था. सच बताऊँ ऐसा लगा जैसे तुमने धीरे से माथा सहला दिया हो मेरा...और कई वर्षों की सारी थकान मिट गई हो।
थोड़ी देर दसास्वमेध पर रहा जहाँ हम तुम चाय पीकर देर तक उदास रहे थे....वो शीतला घाट तो याद ही होगा न..कैसे तुम खड़ी हो गई थी वहां छोटे बच्चे जैसी...मैं देर तक हंसता रहा था....इतनी मासूम क्यों हो तुम..खुद से ही पूछना कभी।
छोड़ो...जानती हो आगे राणा महल घाट पर उदास खड़ा रहा. जहाँ उस दिन तुम बैठी थी...कई बार उदासी घेर लेती है...काश आज भी तुम बैठी होती।
याद है मान मन्दिर घाट की सीढियाँ चढ़ते हुए कैसे तुमने मेरा हाथ पकड़ लिया था....कहीं गिर न जावो..
मुझे उस दिन मेरे प्रिय कवि केदार नाथ सिंह याद आये थे...उनकी वो पंक्तियाँ।
"उसका हाथ मैंने अपने हाथ में लेकर जाना कि दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए...."
सच पूछो तो उस दिन कविता महसूस किया मैंने...।
जाने दो...कहोगी कि रुलाने का मन है क्या...?
बस आज उदास हूँ..लेकिन तुम न होना..
तुमतो बस हंसते हुए अच्छी लगती हो...हंसती रहना..अस्सी से लेकर राजघाट की तरह...
मेरी उदासी दुनिया की सबसे खूबसूरत उदासी है...प्यार में उदास हो जाना थोड़ा सा आदमी हो जाना है।
आगे क्या कहूँ और क्या लिखूं....
ये जानना कि तुम मेरी बनारस हो..जिसमें मैं जी रहा हूँ।

                                        तुम्हारा
                                         अतुल

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