Tuesday 29 March 2016

करिया सलाम कामरेड...

आज पढ़ाई,नौकरी के बाद ज्यादा समय फेसबुक,whats app ले लेता है..   इससे समय मिलने के बाद साहित्य प्रेमी कूल ड्यूड  चेतन भगत,अमीश को पढ़तें हैं..
देखता हूँ कुछ लौंडे 'हाफ गर्लफ्रेंड' सिरहाने रखकर सोतें हैं..और कुछ तो  'मेल्हुआ के मृत्युंजय' लेकर ही जगते हैं..
ट्रेन,बस में किसी सुंदर बालिका को देखते ही इनका साहित्य प्रेम इस कदर फफाने लगता है,कि प्रेमचन्द,रेणू की आत्मा पानी मांगने लगती है..
बचे-खुचे ड्यूड इयरफोन निकाल हनी सिंह,अरिजीत सिंह को सुनतें हैं.

आज इस भागम-भाग के दौर में  ग्रन्थ और बड़े बड़े उपन्यास, ध्रुपद-धमार पढ़ने-सुनने कि फुर्सत शायद ही किसी को हो..आज सारा साहित्य एक क्लीक और हजारों किताबेंएक किंडल में उपलब्ध है...

इस दौर में ड्यूडों से पूछा जाय कि "मनुस्मृति के बारे क्या जानते हो"?
किसी दलित से पूछा जाय की "भाई वो कौन सा अध्याय,पेज या श्लोक है जिसमें दलितों के बारे में अनाप-शनाप लिखा गया है..तनिक बतावो तो?
किसी रोटी बेल रही महिला से पूछा जाय की "चाची तनिक बताइये तो कि मनुस्मृति के किस श्लोक में महिला को  दोयम दर्जा दिया गया है..."?

तो साहेब ड्यूड पुनः कान में इयर फोन ठूस   लेंगे.
दलित जी हंस कर कहेंगे
"का फालतू बात कर रहे,अपना काम करिये न"
महिला भी यहीं कहेंगी...."बेटा रोटी खालो और दिमाग न जलावो.गैस खतम हो रहा.."

और सिर्फ यही लोग क्यों,  मेरे 5 हजार मित्र और 6 हजार से ऊपर फॉलोवर्स में से शायद ही किसी ने मनुस्मृति पढ़ी होगी...
क्योंकि सबसे बड़ी बात कि इसे आज पढ़ने की जरूरत क्या है?.. ये ग्रन्थ अपनी प्रासंगिकता खो चुका है...न  ही कहीं किसी सलेबस में पढ़ाया जाता है..न ही किसी के घर में इसका रोज हनुमान चालीसा की तरह पाठ होता होगा...न ही ये कोई वैदिक ग्रन्थ है..न ही  हमारे तमाम पूजा-पाठ रीती-रिवाज में  इस पुस्तक का कहीं प्रयोग होता है....न ही हमारा देश और समाज इससे संचालित होता है..तो आखिर क्यों कोई पढ़े?

आज  हमें या आपको जब भी कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने का मन करेगा तो एक कॉमन सी तमन्ना उतपन्न होगी की हम पहले गीता पढ़ें..या कुरआन,बाइबिल या शबद याद करें...
लोग पढ़ भी रहे, आज भी दुनिया का सर्वाधिक लोकप्रिय,प्रासंगिक और हर वर्ग,धर्म में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ग्रन्थ गीता है।

तो इस दौर में मनुस्मृति की बातें करना मुझे विशुद्ध बौद्धिक चूतियापा से ज्यादा कुछ नहीं लगता...
लेकिन आज भी  कुछ बाबा साहेब  अम्बेडकर  के अंधभक्त और फर्जी दलित विमर्शकार मनुस्मृति की बातें अपना नैतिक कर्तव्य समझ के कर रहें हैं..क्योंकि बाबा साहेब ने जलाया था. तो ये जानते हैं कि ये भी जलाकर बाबा साहब बन जायेंगे.
ये बेचारे इतना नहीं सोच पाते कि तब के हालात और आज के हालात में बड़ी अंतर  है..
आज  किताब जलाने से किसी दलित को एक जून की रोटी नहीं मिलेगी..उसे मनुस्मृति और विमर्श से ज्यादा  रोजगार,पढ़ाई,और पर्याप्त कौशल विकास के अवसर उपलब्ध कराने की जरूरत है.

लेकिन नही.परसाई जी ने  सही कहा है..
"भक्तों का मूर्ख होना जरूरी है..."
वो चाहें किसी के भक्त क्यों न हों..
जैसे जाड़े के दिनों में अपनी साख चमकाने के लिये फर्जी समाजसेवी चौराहे पर दस बारह कम्बल बितरण कर फ़ोटो खिंचाने लगतें हैं...ठीक वैसे ही साल में एक दो बार कुछ फर्जी दलित पुरोधा  भक्त मनुस्मृति जलाकर जहर उगलने लगते हैं।
बड़ी अफ़सोस होता है कि हर बात पर 'जे भीम' और 'नमो बुद्धाय' कर जहर उगलने  वाले ये क्रांतिकारी..बाबा साहेब से न 'मानवता' सिख सके और  न ही बुद्ध से "चेतना के विकास का मार्ग' जान सके.

इधर 14 अप्रैल करीब है. किताब जलाने का मौसम आ रहा...नेता बनने के दिन आ रहे।
उधर जेएनयू का तो  एक अपना मौसम है..
आप तो जानते हैं कि वहां के कामरेड चाइनीज कैलेंडर से दैनिक क्रिया कलाप करतें हैं..चे,माओ,स्टालिन और बाबा मार्क्स उनके देवता हैं।
सो मौसम के कुछ  एक महीना पहले महिला दिवस पर मनु स्मृति जला ली गयी.

अब इन फर्जी क्रांतिकारियों से पूछा जाय कि....'हे कामरेड...आप अप्रासंगिक हो चुके मनुस्मृति में आग  लगा देते हैं..अपने में किस आफ लव कर लेते हैं..बीफ फेस्टिवल भी कर  देते हैं.....हर वक्त स्त्री सशक्तिकरण और समानता की बातें कर मनुवाद और हिन्दू धर्म की ऐसी की तैसी इस अंदाज में करते हैं..मानों जेएनयू में  चौबीस घण्टा सिर्फ रक्षाबन्धन ही मनता है...

लेकिन कामरेड जी...'आज  सालों से  एक बेचारी सी मुस्लिम महिला शायरा बानों सुप्रीम कोर्ट में शरीयत जैसे गन्दे कानून के खिलाफ लड़ रही हैं...
उन पर लगातार शारीरिक,मानसिक,अत्याचार किया गया है.
इस महिला के साथ कब अपना लाल झण्डा खड़ा करेंगे..?

उस मुस्लिम पर्सनल ला (शरीयत) के किताब की प्रतियां कब जलायेंगे..जिसमें आज भी पुरुष तीन बार तलाक बोल दे तो तलाक हो जाता है...उस निकाह हलाला और कई निकाह कर चार बीबी रखने के मर्दवादी विशेषाधिकार के खिलाफ कब मोमबत्ती निकालेंगे?
उस घटिया हलाला कानून के खिलाफ कब डफली बजायेंगे...जहाँ आज भी किसी तलाक शुदा  महिला को अपने पूर्व पति से शादी करनी हो तो उसे किसी दूसरे से शादी करके उससे तलाक लेना पड़ता है,तब जाकर पहले पति से शादी होती है.

आज भी लाखों गरीब मुस्लिम महिलाएं इन शरीयत की बेड़ियों में कराह रहीं हैं...पशु भी उनसे अच्छी हालात में जी रहे हैं...इनके समानता और अधिकार की बातें कब होंगी...
ये कैसा आपका स्त्री विमर्श है यार?
जरा पूछिये तो कि वो जेएनयू में मनुस्मृति जलाने की पैरवी करने वाली उपाध्यक्षा शेहला राशिद से कि वो  शरीयत के खिलाफ और शायरा बानों के साथ आखिर कब खड़ा होंगी?...

अरे हिम्मत नहीं आप में कामरेड ...ये आपके फर्जी वामपंथ और बौद्धिक चूतियापा का तकाजा है कि  वो मनुष्यता के लिये  समस्या बन गये नक्सलवाद और शरीयत जैसे कानून को अनदेखा कर फर्जी के जनगीत गाये.

लाल नहीं करिया सलाम..

3 comments:

  1. तीखा प्रहार। जाते-जाते एक स्वाभाविक प्रश्न। ऐसा है अतुल भाई, कि हमारे देश के बुद्धिजीवियों की बुद्धि कुछ 'ख़ास' तरह के मुद्दों पर हीं जागृत होती है। फिलहाल वे 'कोमा' में हैं।

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