Saturday 16 January 2016

कलकत्ता है....

मीठी सी सर्दी की सुबह..आसमान में कोहरे और धूप में एक जंग छिड़ी है...सूरज और बदली का ये प्रेम युद्ध तो शाश्वत है..कमबख्त न कोई हारता है न कोई जीतता है..आसमान भी इस बेवकूफी पर  हंसता है..मानों इस युद्ध के बाद मौसम कोई प्रेम का नया गीत गायेगा...हुलास के फूल खिलेंगे..जीवन संगीत के नए तराने  गूंजेंगे...
हाँ. हर शहर का अपना संगीत होता है...लेकिन इस शहर के संगीत  का रंग कुछ जुदा  है..देखिये न जमीन पर कुछ लोग भगे जा रहे हैं..पता न क्या जल्दी है उन्हें...कुछ लोग एक कुछ लोगों के पास लग रहा आज कोई  काम ही नहीं..ये देखकर कई बार लय कि परिभाषा दुरुस्त करने का मन करता है...संगीत रत्नाकर में एक जगह शारंगदेव कहतें हैं.."क्रिया के बाद जो विश्रांति होती है वो लय है"..लेकिन इस महानगर के साथ ऐसा नहीं है...क्रिया में ही विश्रांति और विश्रांति में ही क्रिया इस शहर की पहचान है.
माना कि  मशीन बनाते बनाते आदमी मशीन हो गया है..लेकिन कई जगह देखकर लगा कि इस शहर में आदमी आज भी अपने भीतर बैठे आदमी को खोज रहा है...
हाथ वाले रिक्शा,और धीमी गति के समाचार की तर्ज पर चल रही ट्राम..समय से कदमताल करती मेट्रो,पानी में नावें.. सब कुछ एक जगह एक साथ यहीं है।
जब गाँव गाँव नहीं रहे..शहर शहर नही रहे..इस शहर ने खुद में खुद को बचाकर रखा है..

2 comments:

  1. आप भी खुद को बचाकर रखियेगा ....दुनिया में बहुत प्रदुषण है और कलमकार की कलम का जिन्दा रहना जरूरी है

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  2. आप भी खुद को बचाकर रखियेगा ....दुनिया में बहुत प्रदुषण है और कलमकार की कलम का जिन्दा रहना जरूरी है

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