Wednesday 13 January 2016

कलकत्ता का विरह से नाता है...


 
खेदन सिंग बियाह कराने गए...परछावन में इतना खुश थे कि देखते बन रहा था.बाबी बैंड पार्टी सिकन्दरपुर बलिया ने "जीमी जीमी आजा आजा" बजाने के बाद खूब बराती लौंडो को नागिन डांस नचाया....दुआरे बरात लगी तो भौजी को बहिनीयों ने एक स्वर में गाया..
"आपन खोरिया बहारा ए कवन पापा
आवातारे दुलहा दामाद हो लाला.."
हाय... इस खेदन दामाद को देखकर उस दिन उनकी सास  का गोड़ जमीन पर नहीं पड़ रहा था।
मने कोहबर में  तो सरहज ने गाल में  दही पोत दिया..आ मझिली साली ने आँख मारते हुए कहा ..."ए जीजा तहरी बहिन का..मेरी दीदिया को  ठीक से रखियेगा...खाली अपने दीदिया पर धेयान मत दिजियेगा"..बस खेदन लजा गए..लेकिन हाय रे जून के गर्मी..पसीना से खेदन दुलहा कि आँख में लगा काजर बह गया..बड़की सरहज पंखा हांक कर छेना खिला रही थी.. बस जैसे तैसे बियाह हुआ...मेहरारू घर में आ गई..सुबेरे ककन छूटा..बाजा बजा... गाँव भर कसार लड्डू आ  मिठाई बंटी..टोला भर हाला हुआ कि खेदन को दहेज में साइकिल भी मिला है आ घड़ी के साथे रेडियो भी....बाप रे! रेडियो  तो गाँव के मुखदेव को नहीं मिला  जबकि उ मलेटरी में है।
खैर..कुछ दिन बाद खेदन  खेती बारी में भीड़ गए.रहर काटकर बेच दिए...अनाज घरे आ गया.अब तनी बियाह के बाद आराम हो गया है ।...लक्ष्मी जैसी मेहरारू पाकर खेदन अघा गए हैं....कातना सुलक्षनी है..सूबेरही नहा धोकर तुलसी जी को जल  देती है.दुर्गा जी की
आरती गाती है।
घूंघट उठाकर देखती है तो लगता है कि माघ के घने कोहरे के बाद आज धूप निकली है...सिलवट पर मसाला पीसती हैं तो चूड़ियाँ खन खन बजतीं हैं.... ..
चलती है तो पाँव के पैजेब ऐसे बजतें  हैं.मानों जेठ के घाम के बाद अब जोर से बारिष होगी।
लेकिन हाय रे खेदन. इ सुख नसीब में नही..ठीक से चार दिन रहे भी नहीं तब तक कमाने की चिंता सताने लगी..बाबूजी माई कहने लगे कि "अब  एगो से दू गो हो गए. बाहर जावो कही."वो भी जानते हैं कि कमाएंगे नहीं तो का खाएंगे..खेती बाड़ी का भगवाने मालिक है..कइसे कइसे खाने भर को हो जाता है यही बहुत है...इस खेती के सहारे बस अगले साल  कि खेती हो जाय बड़ी बात है...
अब तो भादो में पलानी छवाना पड़ेगा..आएंगे तो भैंस खरीदेंगे..मेहरारू भी तो नइहर जायेगी तो सब क्या कहेंगे कि ससुरा से दुबरा के आई है.
सो खेदन कमाने जाने के लिए तैयार हो गए...रहर बेच दिए..करेजा पर पत्थर रखकर हावड़ा  का टिकस करवा लिए..खेदन बो भौजी उस दिन खूब रोईं...
खेदन जब झाँझा स्टेशन आये आ झोला में से निकालकर  रोटी अँचार  खाने लगे तो  आँख से पानी  निकलने लगा.. गरीबी रे गरीबी..कहाँ से कहाँ आ गए।
प्रह्लाद चाचा मजदूर यूनियन के अध्यक्ष हैं सो आते ही हावड़ा जूट मील में  35 रुपिया महीना तबखाह पर लेबर हो गए..
लेकिन आग ना लागो इस 35 रुपिया को  खेदन बो भौजी पर  तो पत्थर ही पड़ गया...
अब न पायल उस लय में छनछनाती है..न चूड़ियाँ  सितार की तरह बजती हैं....सब सून।
उनके संइयां छोड़के के क्या चले गए...पलंग
अब उदास रहने लगी हैं....बिंदिया लाली चूड़ी श्रृंगार जैसे शब्दों से तो जैसे मुकदमा ही हो गया..
होली आती है,दिवाली अउर दिवाली के बाद छठ..बस नहीं आते तो उनके खेदन पिया..
ले देकर चार महीना में चिट्ठी आता है कि बैशाख में आएंगे..ये लाएंगे वो लाएंगे.मंगरा हॉट से चार पीस तांत वाला साड़ी लिए हैं..आएंगे तो रानीगंज के सोनरा से बाली आ झुमका बनवायेंगे...
भौजी  उसी बैशाख के करारे जी रही हैं..जब चिट्ठी आता है एक उम्मीद का ठण्डा झोंका आता है जो विरह की आग को कम करता है।
लेकिन भौजी कभी अपनी किस्मत को कोसती हैं..कभी उस कमबख्त रेल गाड़ी और सबसे ज्यादा उस पुरुब के देश कलकत्ता को..
बस भौजी नहीं जानतीं कि कलकता का विरह से नाता है.....इस शहर ने खेदन बो भौजी जैसी लाखों भौजाइयों को बेहिसाब विरह दिया है...
जिसको लिखने के किये करेजा पर पत्थर रखना पड़ेगा...
लेकिन सुखद बात ये है कि इसी पूरुब के देश इसी कलकत्ता ने हमारे लोकसंगीत की थाती को सबसे ज्यादा समृद्ध किया है...
कलकत्ता न होता और खेदन जैसे लोग बहुत पैसे वाले होते तो शायद...महेंद्र मिसिर आ भिखारी ठाकुर के गीत उतने मर्मस्पर्शी न होते।
वो सुबह से लेकर शाम तक और शादी से लेकर मुंडन तक के गीतों में जो  विरह झलकता है...वो इसी कलकत्ता की देन है।
आज हालात बदल गए..वो लोग अब न रहे कलकत्ता भी अब वो कलकत्ता न रहा....
अब खेदन जैसे लोग दुबई कुवैत अबूधाबी जाना चाहतें हैं....अब  भौजी भी खुश रहती है.. फेसबुक पर  भइया से चैटिंग  आ व्हाट्स अप से फिरी में बतीया लेती है...मनीआर्डर एक सप्ताह में नहीं एक मिनट में आ जाता है।
अब "गवना करवल ए हरी जी अपने पुरूबवा गइले हो राम" के जगह.. "सइयां अरब गइले ना" हो गया है।
अब वो दर्द न रहा।
लेकिन ये बहस चलती रहनी चाहिए....शोध होता रहना चाहिए..
की विरह का संगीत से चोली दामन का नाता है।
आज भी दादी और नानी जब पूजा के लिए  गेंहू  पीसतीं हैं तो यही गाती हैं....
जांतवां पीसत मोरा हथवा खीअइले की नाही अइले ना
परदेसिया बलमुआ की नाही अइले ना।
आगी लागो सई दूइ सौ के नोकरिया की नाही अइले ना
परदेसिया बलमुआ की नाही अइले ना.....

1 comment:

  1. पीड़ा संगीत की जननी है ये तो सच है...और सच आपकी कलम से फूटता है ...तो कलम को सलाम

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