Monday 6 July 2015

बनारस प्रेम कथा

कार्तिक पूर्णिमा से तीन दिन पहिले शाम का समय...गंगा आरती की तैयारी..पर्यटकों और नाव वालों में पैसे को लेकर बहस..पानी का श्रृंगार करतीं नावें...घाट के बसिंदों में देव दीपावली का अलग जोश..दसास्वमेध से दाहिने मुड़ते ही शीतला घाट..आगे मुंशी घाट..  फिर दरभंगा घाट भी......उसके आगे चौसट्टी घाट...थोड़ा आगे बबुआ पांडे घाट ..वहीँ एक छोटे से मन्दिर के बगल में गुमटी से सटी चाय और सिगरेट की दूकान.. मने हिप्पियों का काफी हाउस ..वो सुबह जहाँ आपको योगा करते दिख जाएंगे वहीँ शाम को गिटार बजाकर  बीथोवेन या द बीटल्स को गुनगुनाते झुमतें गलबहियां लड़ाते एक दूजे को चूमते बेफिक्र बेपरवाह...लगता नहीं की उन्हें दुनिया की कोई फिक्र है....ग्रीस दिवालिया हो जाय या सीरिया बर्बाद हो जाए...उनके लिए हमेशा जश्न है...चाय और सिगरेट में इन हिप्पियों ने एक प्रतिस्पर्धा  पैदा की है...ये झा जी मानतें हैं...वैसे झा जी ये भी मानते हैं की ई भांग और गांजा भी पीतें है सरवा. .भक भक बसातें हैं..पर शराब पीते नहीं देखा आजतक...शायद हिप्पीओं का  दिल नहीं टूटा इनकी  तरह
झा जी मने टैलेंट की दूकान...सुंदर मुख, घुंघराले बाल ,गौर वर्ण...बिरजू महराज की चाल..गाना  बजाना नाचना..चित्रकार भी...ख्याल ठुमरी और विद्यापति से लेकर मेहँदी हसन तक को गवा लीजिये...ढोलक तबला हारमोनियम बजवा लिजिये..या वान गाग या राजारवि वर्मा की पेंटिंग की बारीकियां पूछ लीजिये...या मधुबनी पेंटिंग की खासियत...सब में माहिर हैं...अभी संस्कृत विश्वविद्यालय में आचार्य के छात्र हैं..इसके पहले आपको बता दें.आज से चार  साल पहीले झा जी दरभंगा से बनारस आये... दरभंगा में इनके पिताजी की रामलीला मण्डली थी..जिसमें ये राम बनते थे..एक बार हुआ यों की ऐसे ही किसी कार्यक्रम में एक सुकन्या इनके रूप लावण्य पर इस कदर मोहित हो गयी की उसे राम की बजाय इनमें कृष्ण दिखने लगे...झा जी ने उत्तम चरित्र का परिचय देते हुए उसे जनेरा के खेत में बुलाया...किसी लौंडे ने देख लिया..हल्ला...अरे ई का.."भगवान राम रासलीला कर रहें हैं."..बस इनकी हुई धुनाई...लंका पर चढ़ाई से पहले ही लंका दहन हो गया.....पिताजी ने सबसे सार्वजनिक माफि माँगी..."अभी सोलह साल का है...बकस दीजिये इसे."..मण्डली की बेइज्जती न हो इस डर से ये संगीत सिखने बनारस आ गए...अब बेचारे पाँच साल से बनारस हैं.....
ठीक  सुबह को बबुआ पांडे घाट पर चाय हाथ में लेकर हिप्पियों का योगा देखते हैं. कहतें हैं मन शांत हो जाता हैं देखकर...शाम को दरभंगा घाट पर बैठते हैं. कहतें हैं "लगता है अपने घर बैठें हैं....धन्य हो दरभंगा महराज....
सुबह शाम रोज का काम है...सुबह छूट जाए योगा पर शाम नहीं...शाम को उदास सा चेहरा लटकाये किसी के ख्यालों में खोये..कभी कोई बन्दीस गुनगुनाते .कभी कोई ग़ज़ल के शेर..कभी पैर पर हाथ से कोई झपताल का टुकड़ा बजाते.. बेवजह खुश होने की कोसीस के बावजूद उनके चेहरे पर साफ़ लिखा हुआ पढ़ा जा सकता है..."इस लड़के का दिल टूट गया है"
आदत वस दसास्वमेध की ओर झाँककर देख लेतें हैं... शायद आएगी मुझसे मिलने....लेकिन क्यों आयेगी...दिल से हूक उठता.. अरे कौन आएगी? 
अरे वही जिसे दिल दे दिया था झा जी ने कभी..इनके मकान मालिकन की बेटी..तब वो बारह में पढ़ती थी और ये तेरह में यानी  शास्त्री प्रथम वर्ष...पर प्यार की डिग्री झा जी को तीन दिन में ही मिल गयी थी.. एक दिन नल पर पानी भरते हुए नैनाचार हुए थे..उसने कहा था ठेठ बनारसी में..'तू बहुत अच्छा गावेला.' एकदम मनोज तिवरिया मतीन.. झा जी इस उपमा अलंकार से आहत होकर भी खुश थे..और उसकी तरफ देखकर  गुनगुना दिया...'बगल वाली जान मारेली'...सुनकर लड़की शरमाते हुए खूब हंसी थी...बक्क....तब झा जी उसके मकान में नए नए रहने आये थे....लड़की अल्हड़ सी इठलाती हुई चलती थी...तीन घण्टा बाल झाड़ती और तेईस बार शीशा देखकर बोरो प्लस लगाती....झा जी अपनी खिड़की से छुपकर उसे देखते थे...और ख्याल गाना छोड़ फिल्मी गाना गाते थे...'तुझे देखा तो ये जाना सनम' 
उधर से अगली लाइन वो गुनगुनाती 'प्यार होता है दीवाना सनम..इतने में ही प्यार हो गया था...झा जी के मन में आता की दिबाल तोड़कर उसके पास जाकर आई लव यू बोल दें...लेकिन सीमेंट की दीवाल से ज्यादा मजबूत तो बन्धन और मर्यादा की बनी बनाई दिबालें हैं जिनके तले न जाने कितनी प्रेम कहानियाँ शुरू होने से पहले दफन हो जातीं हैं....
ठीक तीन दिन बाद देव दीपावली आ गयी... झा जी शाम को देव दीपावली में दरभंगा घाट..सात वार में नौ त्यौहार मनाने वाली काशी में उस दिन स्वर्ग उतर आया था...अचानक से देखते हैं एक सुंदर सा मुख दिए की बाती सीधा कर रहा है...कभी दुपट्टा सम्भालता है..कभी चेहरे पर लटके बालो को सीधा करता है..."अरे ये तो वही है बगल वाली...बाप रे आज सज संवरकर इतनी सुंदर..... एकदम परी ।" मन ही मन झा जी मुस्कराये थे।
कैसी है आप?
अरे आप...यहां क्या हो रहा गायकार जी..मनोज तिवारी....
उसने हंसते हुए पूछा था..
अरे आज देखने आ गए ..पूरी दुनिया आज बनारस में  हैं और हम यही रहकर न आएं...
आपका नाम क्या है?
राघव..पूरा राघव नंदन झा..
कुछ कहना था आपसे
क्या?
बोलिये..
वो कुछ नहीं वैसे आपका नाम क्या है?
ज्योति यादव..बताकर खूब हंसी थी.... "सब जानते हैं झा जी हम"..मन  ही मन कहते हुए ज्योति ने दिए में ज्योति जलाया था...जिसका प्रकाश दरभंगा घाट पर कम दरभंगा वाले झा के दिल में ज्यादा फैल गया था...
उनको एक पल लगा आज दिवाली नहीं आज मेरी ईद है...सामने मेरा चाँद....देर तक निहारा था दोनों ने एक दूजे को.... और वो सब कुछ बिना कहे हो गया था..जिसे कहने के लिए लोग तीन शब्दों का सहारा लेतें हैं...दिया गवाह था ज्योति भी गंगा और बनारस भी ।
तब से मिलना जुलना शुरू...ज्योति को हरा रंग खूब पसन्द था..झा जी को आलू के पराठे...
वो अग्रसेन से पढ़कर घाट होते हुए घर जाती..ये दरभंगा घाट पर रोज उसका इंतजार करते... सीढ़ियों पर उसके बनाये पराठे खाते..वो बताती आज गंगा जी का पानी भी हरा हो गया है आप इस हरे शर्ट में इतने स्मार्ट लग रहे की" झा जी खूब हसंते....कौन समझाये इस पगली को..प्रेम दीवानी को.. सावन के अंधे को... की ये  तो प्यार का रंग है...और प्यार का रंग सबसे प्यारा है।
"सुनों कल साजन में चलो फिलिम देखने..इमरान हाशमी का..झा जी ने कहते हुए उसका हाथ छुआ था...
छी उसका..नहीं कल क्लास है...और साजन के पास मेरे मामा दूध बेचते हैं...
तो आईपी में..देखेंगे फिर..
पर आप मुझे छुएंगे नहीं...वरना हम मम्मी से कह देंगे..."
झा जी इस मासूमियत पर खूब हंसे थे...
ये प्यार की गाडी सड़क पर नहीं बनारस के घाटों की सीढ़ियों पर दौड़ रही थी...कभी अस्सी कभी मानमंदिर कभी केदार घाट..एक साल दो साल तीन साल... अनवरत..पिक्चर छोला चाट ..गिफ्ट..रूठना मनाना मिलना बिछड़ना रोना धोना सब...अचानक से गाडी को  ब्रेक लगा तब जब एक दिन ज्योति ने कहा "पापा को मालूम हो गया सब रात को...आप कल घर खाली करिये..वरना आपकी खैर नही.."
झा जी को सदमा लगा..बात दरभंगा तक जाए और पिताजी को हार्ट के दौरे पड़ें..इससे पहले झा जी गनेस महाल में शिफ्ट कर गए...
ज्योति की शादी के दिन रो रो कर फैज़ को गाया था...."कफ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो..."  उस दिन ग़ज़ल के शेर का मतलब अच्छे से समझ में आया था।
ओह उस रात ही चार बोतल बियर पीया..और चार दिन बाद घर से  बाहर निकले.. डेढ़ साल हुए अब भी सब कुछ भूलना चाहते हैं पर भूल नहीं पाते...दाढ़ी बढ़ा ली..अब ध्रुपद सिखने में तल्लीन हो गए हैं।
पर हरा रंग से मोह न गया...आज भी सब कुछ उसकी यादों से हरा है...सावन की तरह...लेकिन दिल की बस्ती ऐसी उजड़ी है जिसे बसने में जमाने लगेंगे।
तभी तो आज तक दरभंगा घाट पर शाम को बैठे रहते है ... मानों अब आएगी अब आयेगी।
दो महीना पहले एक मोटी सी लड़की आई..गोद में बच्चा साथ में उसकी दो सहेली।
और देखते ही कहा...रग्घू.
ई पाँच मिनट उसे अवाक होकर ताकते रहे..."अरे ज्योति"
बहुत दुबले हो गए आप..और आज भी हरा शर्ट.. उसने आश्चर्य से पूछा था।
हाँ...लेकिन मेरा पराठा? इतना कहते ही फफक पड़े थे झा जी...
उस दिन ज्योति की आँखों में उमड़े समन्दर के आगे गंगा की लहरें  भी खामोश थी.. और बनारस भी।।

#बप्रेक ( बनारस प्रेम कथा 1)

2 comments:

  1. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति। व्यंग की अपनी एक भाषा और शैली होती है उस पर बिलकुल खरी उतरती है आपकी रचना। जारी रखिये अतुल जी

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  2. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति। व्यंग की अपनी एक भाषा और शैली होती है उस पर बिलकुल खरी उतरती है आपकी रचना। जारी रखिये अतुल जी

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