जाड़े के दिन बुद्धत्व प्राप्ति के दिन होतें हैं...आत्मा और चित्त अनयास ही स्थिर रहतें हैं.. चिंतन मनन में मन खूब रमता है...भाव शुद्धि विचार शुद्धि और शरीर शुद्धि जैसी आवश्यक शर्तें आध्यात्मिक साधना में आड़े नहीं आतीं...दस दिन बाद नहाने पर भी मंटुआ नामक लौंडा खुद को जान अब्राहम का सगा समधी समझता है...और तेरह दिन बाद नहाकर पिंकिया नाम की लरकी जब अपने जयपुर वाले मौसी को फोन करती है तो सबसे पहले यही बताती है..."मासी हम नहा लिए हैं आप?
मल्लब की जाड़े में आदमी कुछ न करे सिर्फ नहा ले ये किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं.
हर नहाने वाला न नहाने को इस अंदाज में देखता है मानों उसने इस सदी का सबसे बड़ा काम कर दिया हो....और अकलेस भाई अब उसे सैफई में समाजवादी स्नान पुरस्कार देकर मानेंगे ।
खैर..पहले का होता था कि हम सब गाँव में कउड़ा तापते थे....बोले तो अलाव..पुवाल और गोइँठा को जलाकर आग तैयार किया जाता...बच्चे थे हम तो आलू और कोन भी पकाते थे...
तब मनोरंजन के घर घर साधन नहीं..उस वक्त स्मार्ट फोन और फेसबुक,whtas app के बारे में भगवान ही बता सकते थे।
सो हर घर के दरवाजे पर एक एक अलाव की ब्यवस्था रहती थी...बच्चे,बूढ़े,जवान,बाबा.दादी सब बैठकर गपियाते थे...
हम सब इनके सामने बैठकर अपने गाँव जवार घर परिवार के इतिहास भूगोल नागरिक शास्त्र से परिचित होते थे....
बाबा बताते की "फलाना राय न अइसा मारे भूत को की सरवा फेर से उस पीपर के फेंड़ पर नहीं आया..नहीँ तो साँझ 5 बजे के बाद का मजाल की एक चिरई उस रस्ते से निकल जाय"
दादी भी बताती की कइसे उ एक बार गोबर पाथ रहीं थीं तब तक सांप निकस गया....बस एक लाठी मारे कि मटिलगनू माटी में मिल गए"
लौंडे अपने केमिकल सेटिंग की बातें करते.."अच्छा तो पिंकुआ सरवा पिंकिया पर लाइन मार रहा...
तब तक कोई दूसरा कहता..ना रे उ त रजेसवा से फंस गयी है.." बड़ी चालू है रे..देखो दस के परीक्षा में हम उसका नकल करवाये आ फंस गयी रजेसवा से...
तब तक पिंकिया का एक वरिष्ठ प्रेमी कहता.."अच्छा चल बारह का एग्जाम फेर से आएगा चिंता मत कर..फेल न हो जाएंगी बबुनी तो हमू महेसर मिसिर के नाती नहीं"
अलाव तापने वाले अलग अलग वर्गों की अलग अलग समस्या थी..
लेकिन तमाम समस्या और आभाव के बीच इन अलाव में पुआल से निकली आग की गर्मी से ज्यादा रिश्तों से निकली प्रेम की गर्मी थी...
आज गर्मी के लिए रूम हीटर है..जानने के लिए गूगल है...बतियाने के लिए मोबाइल और पिंकिया से सेटिंग के लिए फेसबुक whats app।
तभी तो आज तो वक्त ही नही किसी के पास की दुआर पर अलाव जला कर बैठे..दादा दादी को सुनें।
मैं जब ये कहता हूँ तो सब कहते हैं....क्या अतुल भाई आप पुराने जमाने की बातें करते हैं....आपको सन् 47 में पैदा होना चाहिए था...
मैं हंस देता हूँ. ये कहकर कि
"हम कितने आगे आ गए..और आगे आने के कारण कितने पीछे भी चले गए ये सोचना होगा।"
विकास की विसंगति को गहराई से उकेरता है आपका लेख...
ReplyDeleteविकास की विसंगति को गहराई से उकेरता है आपका लेख...
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