Friday, 14 November 2014

बालक हम नादान??

दो रुपया के पारले जी के लिए दो घंटे रोने और चुराए हुए गेंहूँ  बेचकर समोसा खाने के दिव्य सुख के आगे आज महंगे से महंगे होटल का खाना भी  फीका लगता है....
ये तब की बात है जब बारिष के पानी में अपने भी जहाज चला करते थे.....लगता था पूरी दुनिया इस जहाज से हम घूम सकतें हैं...
अब तो किसी लक्जरी गाड़ी बैठकर भी वो एहसास नहीं मिलता।
मेले के लिए पांच रुपया मिलते ही लगता था.. पांच रुपया में  तो पूरा मेला खरीद लेंगे....
एक रुपया का गुब्बारा क्या खरीदा की पूरी दुनिया मुट्ठी में।
साल में एक बार नानी के घर क्या जाते थे..लगता था सरकारी सहायता से विदेश यात्रा पर आयें हैं।
कभी साल में एक पेंट शर्ट मुश्किल से बनता था..तो पहनकर लगता था "अरे हम तो आज हीरो लग रहें हैं."..वो ख़ुशी तो आज लिवाइस और स्पायकर जैसे महंगे ब्रांड को भी पहनकर नहीं मिलती....
टायर नचाने ,गुल्ली डंडा, चीका ,कबड्डी खेलते हुए जब अपने को याद करता हूँ..तो अभी भी रोयें खड़े होने लगतें हैं। जीवन रूपी किताब के एक एक पन्ने जिनमें स्वर्णिम बचपन किसी अमिट स्याही से लिखा लगता है..यादों के झोंके लगते ही जोर जोर से फड़फड़ाने लगता है।
एक उदासी सी घेर लेती है..
सोचते हैं एक झटकें में हम कहाँ आ गये....
आज खुश होने की मुकम्मल वजह खोजी जा रही है..ये मिल जाय ये मिल जाय तो शायद ख़ुशी मिल जाय।
लेकिन उस निरा बचपन में तो रोने का भी एक अपना ही आनंद था....बचपन बेवजह खुश होने का दूसरा नाम है।
मैं अपनी बात कहूँ तो इसका दुःख हमेशा सालता रहता है की मैं समय से पहले बड़ा हो गया...आज भी तो मेरी उम्र के बहुत लड़के हनी सिंह के रैप और कपड़े की तरह बदली जाने वाली गर्ल फ्रेंड के
पेंच-ओ- खम में उलझें हैं....और हम कहाँ संगीत और साहित्य, दर्शन की किताबों में।
दिन रात पढने सीखने और जानकर कुछ बनने की धुन में । लेकिन इसी बीच कुछ है जो पाने के चक्कर में खोतें जा रहें हैं।
तरस आती है अपने पर....
आज जो मित्र भी हैं आस पास उनमें ज्यादा उम्र में हमसे बड़े ही हैं...जो हम उम्र थे वो तो बचपन के साथ ही  बिछड़ गये.....
ये सब कमी  किसी राग में विकृत स्वर की तरह बार बार खटकती रहती है।
लगता है जीवन का सबसे सुखद समय अभाव और जल्दी जल्दी 'जीवन राग' में ताल संगती की जद्दोहद में बीत गया।
एक दिन एक फेसबुक के मित्र ने  बड़े प्यार से पूछ था "आपको  अतुल बाबू कहलाना ज्यादा अच्छा लगता है क्या? 
हमने झट से कहा "हाँ...क्योंकी आज माँ को छोड़कर कोई बाबू नहीं कहता ..सबको मेरी बातों से ये गलतफहमी हो गयी है, की मैं बड़ा हो गया हूँ..यहाँ तक कि पिताजी को भी ।वो भी  जब तब मजा लेने के लिए कह ही देतें हैं.."अच्छा हमार बाबूजी तहार बात सही बा"
आगे क्या कहूँ..ये दुःख सिर्फ मेरा ही नहीं..मेरे जैसे न जाने कितने युवा हैं..जिनका बचपन किसी न किसी कारण वस समय से पहले खत्म हो जाता है...
न जाने कितने अभाव और गरीबी में ये नहीं जान पाते की बचपन क्या है ख़ुशी क्या है और जीवन क्या है..
आज ये हाल है की बच्चे नहीं पैदा होतें हैं...वो आइएस पीसीएस डाक्टर इंजीनयर पैदा होतें हैं....सब कुछ जल्दी जल्दी पा लेने की महात्वाकांक्षा बचपन को कब लील जाती है पता नहीं चलता है।।।
इस हालत में सबसे बड़ी चुनौती यही है अपने अंदर के उस बच्चे को ज़िंदा रखने की...थोड़ी मासूमियत और निर्दोषता को बचाए रखने की।
ताकी आदमी आदमी ही रहे ।कहीं मशीन न हो जाय।
मुझे इधर आकर लगा है कि बच्चा कभी मरता नहीं हैं ।न ही बड़ा होता है।
बस समय की परतें चढ़ती जातीं हैं।
जरा ध्यान से सोचें तो आदमी बिल्कुल प्याज की तरह होता है..जिसपे खूब परतें चढ़ीं हैं..आज भी उसे परत दर परत खोला जाय
तो एक कोमल और बिल्कुल ताज़ी परत मिलेगी।
शायद हम खुलना ही नहीं चाहतें..हमने उस पर डिग्रियां ,गम्भीरता और ज्ञान की मोटी मोटी परतें चढा रखीं हैं...और धीरे धीरे उपर से रुग्ण होतें जा रहें हैं.....
अभी  बाल दिवस बीता है...हर साल हम चाचा नेहरु के बहाने एक दिन बच्चों को याद करतें हैं..
लेकिन सिर्फ बच्चो के लिए ही बाल दिवस क्यों.? हमने कभी सोचा है?
बचपन तो जश्न का दूसरा नाम है..उनके लिए तो प्रतिपल बाल दिवस है..हर क्षण उत्सव है।
ये तो समय से पहले जवान हो गयें बच्चों ,बड़े बड़े विद्वानों ,बड़ी मुश्किल से एक बार हंसने वाले गम्भीर लोगों ,और घर के  बुजुर्ग लोगों के लिये होना चाहिए..
ताकी एक ही दिन सही वो सब ज्ञान और अनुभव की चादर हटाकर वो टायर वाली गाडी नचा सकें..गुल्ली डंडा खेल सकें.. ,बौद्धिक जुगाली छोड़ नानी का  गेंहूँ बेचकर समोसा खा सकें.....मेला घूम सकें ।बात बात पर हंस और रो सकें..बेवजह खुश हो सकें
और थोड़ा सा ज़िंदा हो सकें..उनको लगे की अरे हम खुद ही अपने दुश्मन बन गयें हैं..
सब कुछ पाने के बाद इस भयावह समय में थोड़ी मासूमियत निर्दोषता बचाकर हम रख लें ..सब कुछ जानकर थोड़ी सी नादानी रख लें ये बड़ी उपलब्धी होगी...
वो कविता हैं न प्रिय कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की
"हर जानकारी में छुपा होता है
पतली उब का धागा
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है।"

3 comments:

  1. मैं फिर शब्दों के नए पर्याय खोज
    लिख दूँगी कोई तारीफ़ मगर
    ज़रूरी तो नहीं हर बार कहना-
    'बहुत खूब, बेहद उम्दा।' ....... :)

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  2. धन्यवाद श्रुति :)

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  3. क्या कहू समझ नही आ रहा बस पढ़ के लगा मेरे बचपन की बाते किस ने लिख दी....सबका तो बचपन ऐसा ही होता था ...जब पापा स्कूटर पे ले जाते आगे खड़ा कर......वो मज़ा अब कहा ....बहुत खूब लिखा है भाई अतुल ......आप सच में अतुलय हो ...

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